Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

View full book text
Previous | Next

Page 379
________________ माया के चक्कर में फँसा है, इसे तो खुद ही शान्ति नहीं है, मुझे क्या शान्ति का मार्ग बताएगा । मुनि ने कहाँ भेज दिया ?" एक दिन सेठ बैठा था, पास ही भक्त भी बैठा था। मुनीम घबराया हुआ पाया और बोला - " सेठजी ! गजब हो गया । अमुक जहाज, जिसमें दस लाख का माल लदा आ रहा था, बन्दरगाह पर नहीं पहुँचा । पता लगा है, समुजी तूफानों में घिर कर कहीं डूब गया है ।' सेठ ने गंभीरतापूर्वक कहा - "मुनीम जी, शान्त रहो ! परेशान क्यों होते हो ? डूब गया तो क्या हुआ ? कुछ अनहोनी तो हुई नहीं ? प्रयत्न करने पर भी नहीं बचा तो नहीं बचा, जैसा होना था हुआ, अब घबराना क्या है ?" इस बात को कुछ ही दिन बीते थे कि मुनीमजी दौड़े-दौड़े आये, खुशी में नाच रहे थे"सेठ जी, सेठ जी ! खुशखबरी ! वह जहाज किनारे पर सुरक्षित पहुँच गया है, माल उतारने से पहले ही दुगुना भाव हो गया और बीस लाख में बिक गया है ! सेठ फिर भी शान्त था, गंभीर था । सेठ ने उसी पहले जैसे शान्त मन से कहा"ऐसी क्या बात हो गई ? अनहोनी तो कुछ नहीं हुई ! फिर व्यर्थ ही फूलना, इतराना किस बात का ? यह हानि और लाभ, तो अपनी नियति से होते रहते हैं, हम क्यों इनके पीछे रोएँ और हँसें ?" भक्त ने यह सब देखा, तो उसका अन्तःकरण प्रबुद्ध हो उठा। क्या गजब का प्रादमी है। दस लाख का घाटा हुआ, तब भी शान्त ! और, बीस लाख का मुनाफा हुआ, तब भी शान्त ! दैन्य और अहंकार तो इसे छ भी नहीं गये, कहीं रोमांच भी नहीं हुआ इसको ! यह गृहस्थ है या परम योगी ! उसने सेठ के चरण छू लिए और कहा - "जिस शान्ति की खोज में मुझे यहाँ भेजा गया था, वह साक्षात् मिल गई। जीवन में शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है, इसका गुरुमन्त्र मिल गया मुझे ! " सेठ ने कहा - " जिस गुरु ने तुम्हें यहाँ भेजा, उसी गुरु का उपदेश मेरे पास है। मैंने कभी भी अपने कर्तृत्व का अहंकार नहीं किया, इसलिए मुझे कभी कोई द्वन्द्व नहीं होता । हानि-लाभ के चक्र में अपने को मैं निमित्त मात्र मानकर चलता हूँ, विश्व गतिचक्र की इस मशीन का एक पुर्जा मात्र ! इसलिए मुझे न शोक होता है, और न हर्ष ! न दैन्य और न अहंकार ।" भाग्य सम्मिलित और प्रच्छन्न : इस दृष्टान्त से यह ज्ञात होता है कि कर्तृत्व के अहंकार को किस प्रकार शान्त किया सकता है। सेठ की तरह कोई यदि अपने को अहंकार- बुद्धि से मुक्त रख सके, तो मैं गारण्टी देता है कि जीवन में उसको कभी भी दुःख एवं चिन्ता नहीं होगी । मनुष्य परिवार एवं समाज के बीच बैठा है। बहुत से उत्तरदायित्व उसके कंधों पर उसी के हाथों से वे पूरे भी होते हैं। परिवार में दस-बीस व्यक्ति हैं और उनका भरणपोषण सिर्फ उसी एक व्यक्ति के द्वारा होता है, तो क्या वह यह समझ बैठे कि वही इस रंगमंच का एकमात्र सूलधार है । उसके बिना यह नाटक नहीं खेला जा सकता। यदि वह किसी को कुछ न दे तो बस सारा परिवार भूखा मर जाएगा, बच्चे भिखारी बन जाएँगे, बड़े-बूढ़े दानेदाने को मुँहताज हो जाएंगे। मैं सोचता हूँ, इससे बढ़ कर अज्ञानता और क्या हो सकती है ? बालक जब गर्भ में आता है, तो उसका भी भाग्य साथ में आता है, घर में प्रच्छन्न रूप से उसका भाग्य अवश्य काम करता है । कल्पसूत्र में आपने पढ़ा होगा कि जब भगवान् महावीर माता के गर्भ में आए, तब से उस परिवार की अभिवृद्धि होने लगी । उनके नामकरण के अवसर पर पिता सिद्धार्थ क्षत्रिय, अपने मित्र-परिजनों के समक्ष पुत्र के नामकरण का प्रसंग लाते हैं, तो कहते हैं, जब से यह पुत्र अपनी माता के गर्भ में प्राया है, तब से हमारे कुल में धनधान्य, हिरण्य-सुवर्ण, प्रीति-सत्कार आदि प्रत्येक दृष्टि से निरन्तर अभिवृद्धि होती रही है, हम ३६० पन्ना समिक्ख धम्मं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454