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समाज सुधार प्रेम से ही सम्भव :
सभा में बैठकर प्रस्ताव पास कर लेने मात्र से भी समाज-सुधार होने वाला नहीं है । यदि ऐसा संभव होता, तो कभी का हो गया होता। समाज सुधार के लिए तो समाज से लड़ना होगा, किन्तु वह लड़ाई क्रोध की नहीं, प्रेम की लड़ाई होगी।
डॉक्टर जब किसी ग्रामीण अशिक्षित व्यक्ति के फोड़े की चीराफाड़ी करता है, तब वह गालियाँ देता है और चीराफाड़ी न कराने के लिए अपनी सारी शक्ति खर्च कर देता है, किन्तु डाक्टर उस पर क्रोध नहीं करता, दया करता है और मुस्करा कर अपना काम करता जाता है। अन्त में जब रोगी को आराम हो जाता है, तो वह अपनी गालियों के लिए पश्चात्ताप करता है। सोचता है, उन्होंने तो मेरे पाराम के लिए काम किया और मैंने उन्हें व्यर्थ में गालियाँ दीं। यह मेरी कैसी नादानी थी!
इसी प्रकार समाज की किसी भी बुराई को दूर करने के लिए प्रयत्न किया जाएगा, तो समाज चिल्लाएगा और छटपटाएगा, किन्तु समाज-सुधारक को समाज के प्रति कुछ भी बुरा-भला नहीं कहना है। उसे तो मुस्कराते हुए, सहज भाव से, चुपचाप, आगे बढ़ना है
और अपमान के हलाहल विष को भी अमृत के रूप में ग्रहण करके अपना काम करते जाना है। यदि समाज सुधारक ऐसी भूमिका पर आ जाता है, तो वह अवश्य आगे बढ़ सकेगा, निर्धारित कार्य कर सकेगा। विश्व की कोई शक्ति नहीं, जो उसे रोक सके।
भगवान महावीर की क्रांति :
भगवान महावीर बड़े क्रान्तिकारी थे। जब उनका आविर्भाव हुआ, तब धार्मिक क्षेत्र में, सामाजिक क्षेत्र में और दूसरे अनेक क्षेत्रों में भी अनेकानेक बुराइयाँ घुसी हुई थीं। उन्होंने अपनी साधना परिपूर्ण करने के पश्चात् धर्म और समाज में जबर्दस्त क्रान्ति की। जाति-प्रथा का विरोध:
भगवान् ने जाति-पाँति के बन्धनों के विरुद्ध सिंहनाद किया और कहा कि मनुष्य मात्र की एक ही जाति है। मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अन्तर नहीं है। लोगों ने कहा--- यह नई बात कैसे कह रहे हो? हमारे पूर्वज कोई मर्ख तो नहीं थे, जिन्होंने विभिन्न मर्यादा कायम करके जातियों का विभाजन किया। हम आप की बात मानने को तैयार नहीं है। किन्तु भगवान् ने इस चिल्लाहट की परवाह नहीं की, और वे कहते रहे--
"मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा।" जाति के रूप में समग्र मनुष्य-जाति एक ही है । उसके वर्णों, जातियों में टुकड़े नहीं किए जा सकते । उसमें जन्मतः ऊँच-नीच की कल्पना को कोई स्थान नहीं है। श्रेष्ठता या हीनता जन्म पर नहीं; अच्छे, बुरे अपने कर्म पर आधारित है। नारी-उत्थान का उदघोष :
भगवान् ने एक और उद्बोधन दिया--तुम लोग महिला-समाज को गुलामों की तरह रख रहे हो, किन्तु वे भी समाज की महत्त्वपूर्ण अंग हैं। उन्हें भी समाज में उचित स्थान मिलना चाहिए। इसके बिना समाज में समरसता नहीं आ सकेगी। - इस पर भी हजारों लोग चिल्लाए। कहने लगे-~-यह कहाँ से ले आए अपनी डफली, अपना राग? स्त्रियाँ तो मात्र सेवा के लिए बनी हैं, उन्हें कोई भी ऊँचा स्थान कैसे दिया जा सकता है ? . केन्तु, भगवान् ने शान्त-भाव से जनता को अपनी बात समझाई और अपने संघ में
पन्ना समिक्खए धम्म
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