Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 383
________________ अनासक्त सेवा : धर्म का आधार : अहिंसा का विकास होने पर भी यदि मनुष्य को निजी स्वार्थ घेरे रखता है, तो मानना चाहिए कि अमृत में जहर मिला है और उस जहर को अलग कर देना ही अपेक्षित है। अतः यदि मनुष्य अपने परिवार के लिए भी कर्तव्य-बुद्धि से काम कर रहा है, उसमें आसक्ति और स्वार्थ का भाव नहीं रख रहा है और उनसे सेवा लेने की वृत्ति न रख कर अपनी सेवा का दान देने की ही भावना रखता है, बच्चों को उच्च शिक्षण दे रहा है, समाज को सुन्दर और होनहार युवक देने की तैयारी कर रहा है, उसकी भावना यह नहीं है कि बालक होशियार होकर समय पर मेरी सेवा करेगा तथा मेरे परिवार में चार चाँद लगाएगा, आपतु व्यापक दृष्टि से आस-पास के समाज, राष्ट्र एवं जगत की उन्नति में यथोचित योगदान करेगा--इस रूप में यदि मानव की उच्च भावना काम कर रही है, तो आप इस उच्च भावना को अधर्म कैसे कहेंगे? मैं नहीं समझता कि वह अधर्म है। मोह और उत्तरदायित्व : जैन-धर्म जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से मोह-क्षोभ को दूर करने की बात कहता है, परन्तु वह प्राप्त उत्तरदायित्व को यों ही झटक कर फेंक देने की बात कदापि नहीं कहता। श्रावकों के लिए भी यही बात है और साधुनों के लिए भी। साधु अपने शिष्य को पढ़ाता है। यदि इस भावना से पढ़ाता है, कि शिष्य पढ़कर अपने जीवन को उच्च बना सके, अपना कल्याण कर सके और साथ ही अपने संघ एवं समाज का भी कल्याण साध सके, तो यह एक सुन्दर बात है। यदि इसके विपरीत स्वार्थमयी भावना को लेकर पढ़ाता है कि मेरे पढ़ाने के प्रतिदान स्वरूप वह मेरे लिए आहार-पानी ला दिया करेगा, मेरी सेवा किया करेगा, तो यह उचित नहीं है। ऐसी क्षुद्र-वृत्ति से अस्पृष्ट रह कर, यदि गुरु योग्य शिक्षा द्वारा अपने शिष्य को गरु बनने की कला सिखा रहा है, तो भगवान कहते हैं कि वह गरु अपने लिए महत्त्वपूर्ण निर्जरा का कार्य कर रहा है, अपने पाप-कर्मों को खपा रहा है। यों तो कभी कोई गुरु अपने शिष्य के मोह में फंस भी जाता है, किन्तु जैनधर्म उस मोह से बचने की बात करता है, उत्तरदायित्व को दूर फेंकने की नहीं। यही बात गृहस्थ के विषय में भी समझनी चाहिए। मोह और कर्तव्य के अन्तर को ठीक तरह समझ लेना चाहिए। समाज-सुधार का सही दृष्टिकोण : आप जिस समाज में रह रहे हैं, आपको जो समाज और राष्ट्र मिला है, उसके प्रति सेवा की उच्च भावना आप अपने मन में संजो कर रखें, अपने व्यक्तित्व को समाजमय और देशमय और अन्त में सम्पूर्ण प्राणिमय बना डालें। आज दे रहे हैं, तो कल ले लेंगे, इस प्रकार की अन्दर में जो सौदेबाजी की वृत्ति है, स्वार्थ की वासना है-उसे निकाल फेंकें और फिर विशुद्ध कर्तव्य-भावना से, निःस्वार्थ भावना से जो कुछ भी करेंगे, वह सब धर्म बन जाएगा। मैं समझता हूँ, समाज सुधार के लिए इससे भिन्न कोई दूसरा दृष्टिकोण नहीं हो सकता। समाज सुधार का सही मार्ग : आप समाज-सुधार की बात करते हैं, किन्तु मैं कह चका हूँ कि समाज नाम की कोई अलग चीज ही नहीं है। व्यक्ति और परिवार मिल कर ही समाज कहलाते हैं, अतएव समाज-सुधार का अर्थ है--व्यक्तियों का और परिवारों का सुधार करना । पहले व्यक्ति को सुधारना और फिर परिवार को सुधारना । और जब अलग-अलग व्यक्ति तथा परिवार सुधर जाते है, तो फिर समाज स्वयमेव सुधर जाऐगा।' आप समाज को सुधारना चाहते हैं न? बड़ी अच्छी बात है। आपका उद्देश्य प्रशस्त है और आपकी भावना स्तुत्य है, किन्तु यह बतला दीजिए कि आप समाज को नीचे से पन्ना समिक्खए धम्म ३६४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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