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की आंख देखी, तो उसका हृदय चीख उठा । वेदना मुनि को हो रही थी, पर सुभद्रा देखते ही वेदना से तड़प उठी कि मुनि को कितना घोर कष्ट हो रहा होगा? वह जिन-कल्पी मुनि के नियमों से परिचित थी, जिन-कल्पी मुनि अपने हाथ से काँटा नहीं निकालेंगे, यदि मैं इन्हें कहूँ कि कांटा निकाले देती हैं तो भी मुनि ठहरने वाले नहीं हैं। निस्पृह और निरासक्त हैं ये! सुभद्रा श्रद्धा-विह्वल हो गई और आहार देते-देते झटापटी में उसने अपनी जीभ से मुनि का काँटा निकाल दिया। परन्तु जल्दी में सुभद्रा का मस्तक मुनि के मस्तक से छू गया और उसके मस्तक पर की ताजा लगाई हुई बिन्दी मुनि के मस्तक पर भी लग गई। यह घटना-प्रवाह
आगे विकृत रूप में बदल गया और इस पर जो विषाक्त वातावरण सुभद्रा के लिए तैयार किया गया, वह आपको ज्ञात ही है। किन्तु हमें यहाँ देखना है कि जिन-कल्पी साधक की कठोर साधना कैसी होती है ? काँटा लग गया, पाँव में नहीं, अाँख में ! पाँव का काँटा भी चैन नहीं लेने देता, जिसमें यह तो आँख का काँटा ! अाँख से रक्त बह रहा है, भयंकर दर्द हो रहा है। पर समभावी मुनि उसे निकालने की बात सोच भी नहीं रहे हैं। कोई कहे कि ठहरो, हम कांटा निकाल देते हैं, तो ठहरने को भी तैयार नहीं। कितनी हृदय-द्रावक साधना है ! प्रश्न है कि ऐसी उग्र साधना करने वाला 'जिन-कल्पी मुनि' उस अवस्था में केवलज्ञान पा सकता है कि नहीं? जैन परम्परा का समाधान है कि नहीं, जिन-कल्पी अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
संघ की सर्वोच्चता:
___ मैं समझता है, साधना के क्षेत्र में यह बहत बड़ी बात कही गई है। जिनकल्पी अवस्था कठोर साधना की अवस्था है। उस स्थिति में तपस्या और कष्ट-सहिष्णुता अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाती है, फिर क्या रहस्य है इसका कि जिनकल्प-साधना में मुक्ति नहीं होती?
मेरी बात आपके गले उतरे तो ठीक है, न उतरे तब भी कोई बात नहीं, मैं अपनी बात तो कहूँगा कि हम आजकल साधक की कठोर साधना को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं, अनशन एवं कायक्लेश आदि उस उग्न तपश्चर्या को ही मुक्ति का एकमात्र सीधा मार्ग समझ बैठे हैं। परन्तु हमें इस प्रश्न की गहराई में जाना होगा कि जिनकल्पी मुनि जैसी कठोर साधना अन्य किसी अवस्था में नहीं हो सकती, किन्तु फिर भी, उस कठोर साधना काल में भी मुक्ति नहीं मिले, तो इसका क्या कारण है ? जिनकल्प की साधना से भी अधिक महत्त्व की कोई अन्य साधना भी है क्या?
__बात यह है कि जैन-परम्परा ने समूह को महत्त्व दिया है। व्यक्तिगत साधना से भी अधिक सामूहिक साधना का महत्त्व यहाँ माना गया है। सामूहिक साधना की परम्परा में 'स्थविरकल्प' की अपनी परम्परा है। यह वह परम्परा है, जिसमें परस्पर के सद्भाव और सहयोग का विकास हुआ है। सेवा और समर्पण का आदर्श विकसित हुआ है। स्थविरकल्प की साधना में सामाजिक भाव का उदय हुआ है, विकास हुआ है। परस्पर के अवलम्बन एवं प्रेरणा के मार्ग पर अग्रसर होती हई चली गई है यह साधना । 'स्थविरकल्पी' साधक क्रमश: कल्पातीत भूमिका पर पहुँच कर साधना की सर्वोच्च निर्मलता प्राप्त करके कैवल्य पा सकता है। इस दृष्टि से 'जिनकल्प' से भी अधिक महत्त्व स्थविरकल्प' का माना गया है।
बात यह है कि व्यक्ति महान् है, पर उससे भी महान् संघ है। व्यक्ति से समाज बड़ा है। राजनीति और समाज नीति में ही नहीं, अध्यात्म नीति में भी उसकी महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि संघ या समाज नहीं है, तो व्यक्ति की ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि का कोई उपयोग नहीं। इसलिए संघ का व्यक्ति से भी अधिक महत्त्व है।
तीर्थकर जैन-परम्परा के सर्वोच्च व्यक्ति हैं, महामानव है। आध्यात्मिक उपलब्धि के क्षेत्र में उनकी साधना अनन्यतम है। उनके जीवन प्रसंगों में आप देखेंगे कि जब समवसरण लगता है, तीर्थंकर सभा में विराजमान होते हैं, तब वे देशना प्रारम्भ करने से पहले तीर्थ को नमस्कार करते हैं, 'नमो तित्थस्स'। तीर्थ कहें या संघ, एक ही बात है। आप विचार
व्यक्ति और समाज
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