Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 366
________________ सौन्दयं नष्ट हो जाता है, वे सूखकर समाप्त हो जाते है । वृक्ष के साथ उनका जो अस्तित्व और सौन्दर्य था, वह वृक्ष से टूटने पर विलुप्त हो जाता है। वस्तुत: जीवन में जो प्रेम, सद्भाव और सहयोग का सहज रस है, वही व्यक्ति के अस्तित्व का मूल है, प्राण है। जब जीवन का वह रस सूखने लग जाता है, तो जीवन निष्प्राण कंकाल बन कर रह जाता है। यह एक निश्चित तथ्य है कि जीवन की समस्याएँ व्यक्ति अकेला रह कर हल नहीं कर सकता, उसे समूह या संघ के साथ रहकर ही जीवन को सक्रिय और सजीव रखना होता है। संगठन गणित की एक इकाई है। आपने गणित का अभ्यास तो किया ही है। बताइए, एक का अंक ऊपर लिखकर उसके नीचे फिर एक का अंक लिख दिया गया हो, ऊपर नीचे एक-एक बैठा हो, तो दोनों का योग करने पर क्या प्राएगा? १+१=२ एक-एक दो! दोनों एक आमने-सामने भी है, बहुत निकट भी है, किन्तु निकट होते हए भी यदि उनके बीच में अन्तर है, उन्हें अलग-अलग रखने वाला एक चिन्ह बीच में है, तो जब तक यह चिन्ह है, तब तक संख्या-निर्धारण करते समय १+१-२ दो ही कहे जाएंगे। अब यदि उनके बीच से चिन्ह हटाकर उन्हें अगल-बगल में पास-पास रख दिया जाए, तो एक और एक मिलकर ग्यारह हो जाएंगे। एक-एक ऊपर-नीचे दूर-दूर रहने पर दो से आगे नहीं बढ़ सकता, एक-एक ही रहता है। पर एक-एक यदि समान पंक्ति में, बिना कोई चिन्ह बीच में लगाए, पास-पास अंकित कर दिए गए, तो वे ग्यारह हो गए। जीवन में गणित का यह सिद्धान्त लागू कीजिए। परिवार हो, समाज हो, धर्मसंघ हो अथवा राष्ट्र हो, समस्याएं सर्वत्र हैं। सर्वत्र मनुष्य में कुछ-न-कुछ मानवीय दुर्बलताएँ रहती हैं। हम दुर्वलता को बढ़ावा नहीं देते हैं, उन्हें दूर करना चाहते हैं, समस्याओं का समाधान करना चाहते हैं। परन्तु समाधान कैसे हो? इसके लिए एक-दूसरे से घणा अपेक्षित नहीं है। शोरगुल करने से या संगठन को छिन्न-भिन्न करने से, दल परिवर्तन से समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। उसके लिए सद्भाव चाहिए, सहिष्णुता और धैर्य चाहिए। मानव कहीं पर भी हो, वह अपने लिए कुछ सद्भाव चाहता है और कुछ समभाव (समान भाव) भी। सहयोग भी चाहता है और स्वाभिमान की रक्षा भी। जब एक चीज के लिए दूसरी का बलिदान करने का प्रसंग प्राता है, तो समस्या खड़ी हो जाती है। उलझनें और द्वन्द्व पैदा हो जाते हैं। उस समय हमें मानव मन की अन्तःस्थिति को समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि एक-एक को अगल-बगल में अर्थात् समान पंक्ति में बैठा कर उसका बल बढाना है अथवा ऊपर-नीचे या दूर-दूर रखकर उसे वैसे ही रखना है। संगठन, समाज और संघ की जो मर्यादा है, वह व्यक्ति को समान स्तर पर रखने की प्रक्रिया है। सब के हित और सब के सुख की समान भाव से रक्षा और अभिवृद्धि करना, यह समाज और संघ का प्रमुख उद्देश्य है। इसलिए भारतीय संस्कृति का अन्तर्नाद यही है कि व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को संघ में विलीन करदे और इस संघीय भावना में प्रत्येक व्यक्ति को अपने समान समझे। व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत हित, सुख और स्वार्थ को संघ या समाज के हित, सुख और स्वार्थ की दृष्टि से देखे । अपने दृष्टिकोण को व्यापक बनाए, विराट् बनाए। इसी में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास है और संघीय जीवन की हजारों वर्ष पुरानी परम्परा का उत्कर्ष है। ३४७ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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