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अस्तेय व्रत : आदर्श प्रामाणिकता
आचार्य शय्यंभव जैसे महान् श्रुतधर शास्त्रकारों ने कहा है
"चित्तमन्तमचित्तं वा, श्रप्पं वा जइ वा बहुं । दंत-सोहणमेत्तं पि, उग्गहंसि प्रजाइया ।।"
अजीव वस्तु हो या निर्जीव, कम हो या ज्यादा, पर मालिक की प्राज्ञा के बिना कोई भी वस्तु नहीं लेनी चाहिए। दाँत कुरेदने का तिनका भी बिना प्राज्ञा के नहीं लिया जा सकता है। जब अस्तेय व्रत पर सम्यक् रूप से विचार करेंगे, तो यह प्रतीत होगा कि इस व्रत का पालक ही अहिंसा और सत्य व्रत का पालक बन सकता है ।
अपनी वस्तु को छोड़कर दूसरे की किसी भी वस्तु को गलत इरादे से हाथ लगाना चोरी है। दूसरे की वस्तु को बिना उसकी अनुमति के अपने उपयोग में लाना प्रदत्तादान है । इस अदत्तादान का त्याग ही अस्तेय व्रत है । इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि मार्ग में पड़ी हुई दूसरे की वस्तु को अपनी बना लेना भी चोरी है । मन, वचन और काय से चोरी करना, कराना, और अन्ततः अनुमोदन करना भी चोरी है ।
किसी भी वस्तु को बिना आज्ञा लेने का नियम इस व्रत में बताया गया है । जिस वस्तु की हमको आवश्यकता न हो, वह वस्तु दूसरों के पास से लेना भी चोरी है । फिर भले ही वह वस्तु दूसरों की आज्ञा से ही क्यों न ली गई हो, पर बिना जरूरत के वस्तु लेना भी चोरी ही है । अमुक मधुर सुस्वादु फल आदि खाने की मनुष्य को कोई खास आवश्यकता नहीं है, फिर भी यदि वह उन्हें खाने लग जाए तो वह भी चोरी ही है । मनुष्य अपनी गरिमा को समझता नहीं है, इसी से उस भुक्खड़ व्यक्ति से ऐसी चोरी हो जाती है । इस व्रत के आराधक को इस प्रकार अचौर्य का व्यापक अर्थ घटाना चाहिए। जैसे-जैसे वह इस व्रत का विशाल रूप में पालन करता जाएगा, वैसे-वैसे इस व्रत की महत्ता और उसका रहस्य भी समझता जाएगा ।
अस्तेय का इससे भी गहरा अर्थ यह है कि पेट भरने और शरीर टिकाने के लिए जरूरत से अधिक संग्रह करना भी चोरी ही है । एक मनुष्य आवश्यकता से अधिक रखने लग जाए, तो यह स्वाभाविक ही है कि दूसरे जरूरतमन्दों को आवश्यकता पूर्ति के लिए भी कुछ नहीं मिल सकेगा। दो जोड़ी कपड़ों के बजाय यदि कोई मनुष्य बीस जोड़ी कपड़े रखे, तो इससे स्पष्ट ही दूसरे पाँच-सात गरीब आदमियों को वस्त्र - हीन होना पड़ सकता है । अतः किसी भी वस्तु का अधिक संग्रह करना चोरी है ।
जो वस्तु जिस उपयोग के लिए मिली है, उसका वैसा उपयोग नहीं करना भी चोरी है | शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, शक्ति आदि की प्राप्ति जन सेवा तथा श्रात्म- प्राराधना के लिए हुई है, उनका उपयोग जन सेवा तथा आत्माराधना में न कर, एकान्तरूप से भोगोपभोग में करना भी सूक्ष्म दृष्टि से चोरी ही है | शरीरादि का उपयोग परमार्थ के लिए न करते हुए, स्वार्थ के लिए करना भी एक तरह की चोरी ही है ।
उपनिषद् में अश्वपति राजा अपने राज्य की महत्ता कोब ताते हुए एक वाक्य कहता है- 'न मे स्तेनो जनपदे न कदर्य :- चोर और कृपण को वह एक ही श्रेणी में रखता है । गहरा विचार करेंगे, तो प्रतीत होगा कि कृपण ही चोर के जनक होते हैं । अतः समाज
१. दशवेकालिक सूत्र, ६, १४.
अस्तेय व्रत : आदर्श प्रामाणिकता
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