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भगवान् ऋषभदेव ने मानवीय भावना का उद्बोधन किया। उन्होंने मनुष्य जाति को समझाया कि---अब प्रकृति के भरोसे रहने से काम नहीं चलने का। अपने हाथों का उपयोग सिर्फ खाने के लिए ही नहीं, प्रत्युत कमाने, उपार्जन करने के लिए भी होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि-युग बदल गया है, अकर्म-युग का मानव अब कर्म-युग (पुरुषार्थ के युग) में प्रविष्ट हो रहा है। इतने दिन पुरुष सिर्फ भोक्ता बना हुअा था। प्रकृति के कर्त त्व पर उसका जीवन टिका हुआ था। किन्तु अब यह वैषम्य चलने का नहीं है। अब कर्तृत्व और भोक्तृत्व, दोनों ही पुरुष में अपेक्षित है। पुरुष ही कर्ता है और पुरुष ही भोक्ता है। तुम्हारी भुजाओं में बल है, तुम पुरुषार्थ से आनन्द का उपभोग करो। भगवान् आदिनाथ के कर्म-युग का यह उद्घोष अब भी ऋग्वेद १०६०।१२ में प्रतिध्वनित होता दिखाई पड़ता है-~
"अयं मे हस्तो भगवान, अयं मे भगवत्तरः। अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः॥"
--मेरा हाथ ही भगवान् है, भगवान् से भी बढ़कर है। यह मेरा हाथ विश्व के लिए भेषज है, इसके स्पर्श मात्र से सबका कल्याण होता है ।
पुरुषार्थ जागरण की उस वेला में भगवान् ऋषभदेव ने युग को नया मोड़ दिया । मानवजाति को, जो धीरे-धीरे अभावग्रस्त हो रही थी, पराधीनता के फन्दे में फंसकर तड़पने लगी थी, उसे उत्पादन का मन्त्र दिया, श्रम और स्वतन्त्रता का मार्ग दिखाया। फलतः मानव समाज में फिर से नया उल्लास, आनन्द बरसने लगा। सुख-चैन की मुरली बजने लगी।
___ मनुष्य के जीवन में जब-भी कभी ऐसी क्रान्तिशील घड़ियाँ आती है, तो आनन्द की स्रोतस्विनी बहने लग जाती है, वह नाचने लगता है। सबके साथ बैठकर प्रानन्द और उत्सव मनाता है। और बस वे ही घड़ियाँ, वे ही तिथियाँ जीवन में व्रत एवं पर्व का रूप ल लेती हैं
और इतिहास की महत्त्वपूर्ण तिथियाँ बन जाती हैं। इस प्रकार उस नये युग का नया सन्देश जन-जीवन में नई चेतना फूककर उल्लास का त्योहार बन गया। और वही परम्परा आज भी हमारे जीवन में आनन्द-उल्लास की घड़ियों को त्यौहार के रूप में प्रकट करके सबको सम्यक्-आनन्द का अवसर देती है।
भगवान ऋषभदेव के द्वारा कर्मभूमि की स्थापना के बाद मनुष्य पुरुषार्थ के युग में आया और उसने अपने उत्तरदायित्वों को समझा। परिणाम यह हुआ कि सुख-समृद्धि और उल्लास के झूले पर झूलने लगा, और जब सुख-समृद्धि एवं उल्लास आया, तो फिर व्रतों में से व्रत निकलने लगे। हर घर, हर परिवार त्योहार मनाने लगा और फिर सामाजिक जीवन में पर्वो, त्योहारों की लड़ियां बन गईं। समाज और राष्ट्र में त्योहारों की शृखला बनी। जीवन-चक्र जो अबतक व्यक्तिवादी दृष्टि पर घूम रहा था, अब व्यष्टि से समष्टि की ओर घूमा। व्यक्ति ने सामूहिक रूप धारण किया और एक की खुशी, एक का आनन्द, समाज की खुशी और समाज का प्रा निन्द बन गया। इस प्रका र सामाजिक भावना की भूमिका पर चले हए व्रत, सामाजिक चेतना के अग्रदूत सिद्ध हुए। नई स्फूर्ति, नया आनन्द और नया जीवन समाज की नसों में दौड़ने लगा।
प्राचीन जैन, बौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों के अनुशीलन से ऐसा लगता है कि उस समय में पर्व, त्योहार जीवन के प्रावश्यक अंग बन गए थे। एक भी दिन ऐसा नहीं जाता, जबकि समाज में पर्व, त्योहार व उत्सव का कोई प्रायोजन न हो। इतना ही नहीं, बल्कि एक-एक दिन में पाँच-पाँच, दस-दस और उससे भी अधिक पों का सिलसिला चल निकला। सामाजिक जीवन में बच्चों के पर्व अलग, औरतों के पर्व अलग, और वृद्धों के पर्व अलग। इस दृष्टि से भारत का जन-जीवन नित्यप्रति बहुत ही उल्लसित-आनन्दित रहा करता था।
मानव-संस्कृति में व्रतों का योगदान Jain Education Interational
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