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उसी युग में एक और भी घृणित परम्परा भी थी। उत्सव के अवसर पर लोग हाथ में मनुष्य की खोपड़ी लेकर चलते थे। परन्तु, जब जैनधर्म का प्रचार बढ़ा, तो खोपड़ी रखने की भद्दी परम्परा समाप्त कर दी गई। जैनधर्म ने उसके स्थान पर नारियल रखने की परम्परा प्रचलित की। इस प्रकार जैनधर्म की बदौलत खोपड़ी की जगह नारियल की परम्परा धीरे-धीरे सर्वमान्य हो गई। आप देखेंगे कि नारियल ठीक खोपड़ी की शक्ल का होता है. वह मानव-की-सी आकति का है। इस रूप में नारियल नरमण्ड का प्रतीक है। उस समय के जैनों ने विचारा-खोपड़ी रखने से क्या लाभ ? खोपड़ी तो अपावन और अशोभन वस्तु है और जंगलीपन की निशानी है। नारियल रखने से उस परम्परा का पालन भी हो जाएगा और जंगलीपन की निशानी भी दूर हो जाएगी। ___इस प्रकार उस समय के हिंसा-प्रधान जंगली रिवाजों को जैनधर्म ने दूर किया, जिसमें देवी-देवताओं के आगे पशु-बलि दी जाती थी, यहाँ तक कि मनुष्य की खोपड़ी भी चढ़ाई जाती थी। मैं समझता हूँ, जैनों ने उन हिंसक परम्पराओं को खत्म करके और उनकी जगह इन नवीन अहिंसक परम्पराओं को कायम करके मानवीय वृत्ति की स्थापना की। जैनों ने नारियल के रूप में खोपड़ी का प्रतीक रखा, उसे अन्य धर्मावलम्बियों ने भी स्वीकार कर लिया और
आज तक वह कायम है। इस प्रकार, जैनधर्म द्वारा स्थापित की हुई प्रथाओं और परम्पराओं में सर्वन आप अहिंसा की ही स्फुरणा देखेंगे।
पौराणिक युग की परम्परा :
अकर्म-भूमि की उस अवस्था में मनुष्य असंख्य-काल तक चलता गया। मानव की पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ बढ़ती गईं। किन्तु फिर भी मानव जाति का विकास नहीं हुआ। उनके जीवन का क्रम विकसित नहीं हुआ। उनके जीवन में संघर्ष कम थे, लालसाएँ और प्राकाँक्षाएँ कम थीं। जीवन में भद्रता, सरलता का वातावरण था। कषाय की प्रकृतियाँ भी मंद थीं, यद्यपि कषायभाव की यह मन्दता ज्ञानपूर्वक नहीं थी, उनका स्वभाव, प्रकृति ही शान्त और शीतल थी। सुखी होते हुए भी उनके जीवन में ज्ञान एवं विवेक की कमी थी, वे सिर्फ शरीर के क्षुद्र घेरे में बन्द थे। संयम, साधना तथा आदर्श का विवेक उस जीवन में नहीं था। यही कारण था कि उस काल में एक भी आत्मा मोक्ष में नहीं गई, अहंता-ममता की वासना के बन्धनों को नहीं तोड़ सकी। उनकी दृष्टि केवल 'मैं' और 'मेरे' तक ही सीमित थी। शरीर के अन्दर शरीर से परे क्या है, मालूम होता है, इस सम्बन्ध में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं, और यदि किसी ने सोचा भी तो आगे कदम नहीं बढ़ा सका । जब कभी उस भूमिका का अध्ययन करता हूँ, तो मन में ऐसा भाव आता है कि मैं उस जीवन से बचा रहूँ। जिस जीवन में ज्ञान का कोई प्रकाश न हो. सत्यता का कोई मार्ग न हो, भला उस जीवन में मनष्य भटकने के सिवा
और क्या कर सकता है ? उस जीवन में यदि पतन नहीं है, तो उत्थान भी तो नहीं है। ऐसी निर्माल्य दशा का, इस त्रिशंकु जीवन का कोई भी महत्त्व नहीं है। कुछ ऐसी ही क्रान्ति और प्रगतिविहीन सामान्य दशा में वह अकर्म-युग सुदीर्घ काल तक चलता रहा।
नवयुग का नया सन्देश :
धीरे-धीरे कल्पवृक्षों का युग समाप्त हुआ । इधर प्राकृतिक उत्पादन क्षीण पड़ने लगे, उधर उपभोक्तायों की संख्या बढ़ने लगी। ऐसी परिस्थितियों में प्रायः विग्रह, वर और विरोध पैदा हो ही जाते हैं। जब कभी उत्पादन कम होता है और उपभोक्ताओं की संख्या अधिक होती है, तब परस्पर संघर्षों का होना अवश्यंभावी है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक तौर पर उस युग में भी यही हुआ कि पास्परिक प्रेम एवं स्नेह टूट कर घृणा, द्वेष, कलह और द्वन्द्व बढ़ने लगे, संघर्ष की चिनगारियाँ छिटकने लग गई। समाज में सब ओर कलह, घृणा, द्वन्द्व का सृजन होने लगा।
मानव जाति की उन संकटमयी घड़ियों में, संक्रमणशील परिस्थितियों में प्रथम तीर्थकर
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पन्ना समिक्खए धम्म
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