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भी कहा जा सकता है। अहिंसा और अनेकान्त पर किसी सम्प्रदायविशेष का लेबिल नहीं लगाया जा सकता। ये दोनों तत्त्व भारतीय संस्कृति के कण-कण में रम चुके हैं और भारत
कोटिशः लोगों के अंतर्मन में प्रवेश पा चुके हैं। भले ही कुछ लोगों ने यह समझ लिया हो कि हिंसा और अनेकान्त, जैन धर्म के सिद्धान्त हैं। बात वस्तुतः यह है कि सिद्धान्त सदा म होते हैं, न वे कभी जन्म लेते हैं और न वे कभी मरते हैं। अहिंसा और अनेकान्त को श्रमण भगवान् महावीर ने जन-चेतना के समक्ष प्रस्तुत किया एवं प्रकट किया, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह जैन धर्म के ही सिद्धान्त हैं, बल्कि सत्य यह है कि वे भारत के और भारतीय संस्कृति के अमर सिद्धान्त हैं। क्योंकि भगवान् महावीर और जैन धर्म भारतीय नहीं थे । यह बात अलग है कि भारत की ग्रहिसा-साधना जैन धर्म में अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँची और जैन धर्म के समन्वयात्मक विचार का उच्चतम शिखर - अनेकान्तवाद—— श्रहिंसा का ही चरम विकास है । अनेकान्तवाद नाम यद्यपि जैनाचार्यों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है, किन्तु जिस स्वस्थ दृष्टिकोण की ओर यह सिद्धान्त संकेत करता है, वह दृष्टिकोण भारत में आदिकाल से ही विद्यमान था ।
भारतीय संस्कृति में अहिंसा एवं अनेकान्त :
सहिष्णुता, उदारता, सामासिक संस्कृति, अनेकान्तवाद, समन्वयवाद, अहिंसा और समता - ये सब एक ही तत्त्व के अलग-अलग नाम हैं । अनेकान्तवादी वह है, जो दुराग्रह नहीं करता। अनेकान्तवादी वह है, जो दूसरों के मतों को भी चादर से देखना और समझना चाहता है । अनेकान्तवादी वह है, जो अपने सिद्धान्तों को भी निष्पक्षता के साथ परखता है । अनेकान्तवादी वह है, जो समझोते को अपमान की वस्तु नहीं मानता। सम्राट् अशोक, सम्राट् खारवेल और सम्राट हर्षवर्धन बौद्धिक दृष्टि से अहिंसावादी और अनेकान्तवादी ही थे, जिन्होंने एक सम्प्रदाय विशेष में रहकर भी सभी धर्मों की समान भाव से सेवा की । इसी प्रकार मध्ययुग में सम्राट अकबर भी निष्पक्ष सत्यशोधक के नाते अनेकान्तवादी था, क्योंकि परम सत्य के अनुसन्धान के लिए उसने ग्राजीवन प्रयत्न किया था । परमहंस रामकृष्ण सम्प्रदायातीत दृष्टि से अनेकान्तवादी थे, क्योंकि हिन्दू होते हुए भी सत्य के अनुसन्धान के लिए उन्होंने इस्लाम और ईसाई मत की भी साधना की थी । और गान्धीजी का तो एक प्रकार से सारा जीवन ही हिंसा और अनेकान्त के महापथ का यात्री रहा है। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि हिंसा और अनेकान्त के बिना तथा समता और समन्वय के बिना भारतीय संस्कृति चिरकाल तक खड़ी नहीं रह सकती । जन-जन के जीवन को पावन बनाने के लिए, समता और समन्वय की बड़ी आवश्यकता है। विरोधों का परिहार करना तथा विरोध में से भी विनोद निकाल लेना, इसी को समन्वय कहा जाता है । समन्वय मात्र बौद्धिक सिद्धान्त नहीं है, वह तो मनुष्यों की इस जीवन भारती का जीता-जागता रचनात्मक सिद्धान्त है | समता का अर्थ है - स्नेह, सहानुभूति और सद्भाव । भला इस समता के बिना मानव जाति कैसे सुखी और समृद्ध हो सकती है ? परस्पर की कटुता और कठोरता को दूर करने के लिए, समता की बड़ी श्रावश्यकता है।
संस्कृति और सभ्यता : एक मौलिक विवेचन :
संस्कृति के स्वरूप तथा उसके मूल तत्त्वों के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है। अब एक प्रश्न और है, जिस पर विचार करना आवश्यक है, और वह प्रश्न यह है कि क्या संस्कृति और सभ्यता एक है अथवा भिन्न-भिन्न दो दृष्टिकोण ? संस्कृति और सभ्यता शब्दों का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है । पाश्चात्य विद्वान् टाइलर का कथन है कि सभ्यता और संस्कृति एक-दूसरे के पर्याय हैं । वह संस्कृति के लिए सभ्यता और परम्परा शब्द का प्रयोग भी करता है। इसके विपरीत प्रसिद्ध इतिहासकार टायनवी संस्कृति शब्द का प्रयोग करना पसन्द नहीं करता । उसने सभ्यता शब्द का प्रयोग ही पसन्द किया है। एक दूसरे
संस्कृति और सभ्यता
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