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सिंहासन की होड़ :
मैं देखता हूँ, सिहासनों की होड़ में मनुष्य अंधा होकर चला है। सम्राट् अजातशत्रु बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी सम्राट् हो गया है। युवावस्था में प्रवेश करते ही उसकी महत्वाकांक्षाएँ सुरसा की भाँति विराट् रूप धारण कर लेती हैं । सोचता है - " बाप बूढ़ा हो गया है । चलताचलता जीवन के किनारे पहुँच गया है। अभी तक तो सिंहासन मुझे कभी का मिल जाना चाहिए था। मैं अभी युवक हूं, भुजाओं में भी बल है। बुढ़ापे में साम्राज्य मिलेगा, तो क्या लाभ ? कैसे राज्य विस्तार कर सकूँगा ? कैसे राम्राज्य का आनन्द उठा सकूँगा ? " बस, वह राज्य के लिए बाप को मारने की योजना बनाता है । सिंहासन के सामने पिता के जीवन ar कोई मूल्य नहीं रह जाता है ।
मगध सम्राट् श्रेणिक बूढ़ा हो गया है, पर मरना तो किसी के हाथ की बात नहीं । संन्यास ले सकता था, किन्तु अन्त तक उसने गृहस्थाश्रम का त्याग किया नहीं। कभी-कभी सोचा करता हूँ कि भारत की यह पुरानी परम्परा कितनी महत्त्वपूर्ण थी कि बुढ़ापा आने लगा, शरीर अक्षम होने लगा, तो नई पीढ़ी के लिए मार्ग खोल दिया --- "श्रो ! श्रब तुम इसे संभालो, हम जाते हैं ।" और संसार त्याग कर के चल दिए । महाकवि कालिदास ने रघुवंशी राजाओं का वर्णन करते हुए यही कहा है
"शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां, यौवने वार्द्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते
रघुकुल के प्रबुद्ध राजा बचपन में विद्यात्रों का अभ्यास करते थे, शास्त्र - विद्या सीखते थे और शस्त्र-विद्या भी । यौवन की चहल-पहल हुई तो विवाह करते, गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते, न्याय और नीति के आधार पर प्रजा का पालन करते । जब जवानी ढलने लगती, बुढ़ापे की छाया आने लगती, तो यह नहीं कि राज सिंहासन से चिपटे रहें, भोगों में फँसे रहे । राज सिंहासन अपने उत्तराधिकारी को सौंपा और मुनिवृत्ति स्वीकार करके साधना पथ पर चल पड़े। गृह और राज्य से मुक्त होना मात्र उनका कोई ध्येय नहीं था । उस निवृत्ति में आत्म-रमणता और जन-कल्याण की सत् प्रवृति भी निहित थी ।
विषयैषिणाम् । तनुत्यजाम् ॥”
त्याग की संस्कृति :
जिनके जीवन में प्रतिष्ठा और महत्ता का आधार त्याग, चारित्र एवं प्रेम रहा है, वे चाहे राजसिंहासन पर रहे या जंगल में रहे, जनता के दिलों में बसे रहे हैं, जनता उन्हें श्रद्धा से सिर झुकाती रही है। भारतीय संस्कृति में जनक का उदाहरण हमारे सामने है । जनक के जीवन का आधार साम्राज्य या वैभव नहीं रहा है, बल्कि त्याग, तप, न्यायनिष्ठा श्रीर जनता की सेवा रहा है, इसीलिए वे जनता के पूज्य बन पाए । जनता ने उनका नाम भी 'जनक' अर्थात् पिता रख दिया, जबकि वह उसका पारिवारिक नाम नहीं था । वे राजमहलों रहे फिर भी उनका जीवन-दर्शन जनता के प्रेम में था, प्रजा की भलाई में था । वह वास्तव प्रजा का जनक अर्थात् पिता था ।
हमारी संस्कृति धन, ऐश्वर्य या सत्ता की प्रतिष्ठा में विश्वास नहीं करती है । हमारे यहाँ महल और बँगलों में रहने वाले महान् नहीं माने गए हैं। रेशमी और बहुमूल्य वस्त्र पहनने वालों का प्रदर नहीं हुआ है, बल्कि अकिंचन भिक्षुत्रों की प्रतिष्ठा रही है । झोंपड़ी और जंगल में रहने वालों की पूजा हुई है और बिल्कुल सादे, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहनने वालों पर जनता उत्सर्ग होती रही है ।
स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में गए, तो एक साधारण संन्यासी की वेशभूषा में ही गए। लोगों ने उनसे कहा - "यह अमेरिका है, संसार की उच्च सभ्यता वाला देश है, आप जरा ठीक से कपड़े पहनिए ।"
संस्कृति और सभ्यता
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