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आपका अपना क्या है ? ज्ञानमय आत्मा अपना है, अखण्ड चैतन्य अपना है। इसका त्याग हो नहीं सकता। और, वस्तु का तो त्याग, वास्तव में त्याग है ही नहीं। तो प्रश्न यह है कि फिर त्याग का, अपरिग्रह का क्या मतलब हुआ? इसका अर्थ है कि वस्तु के प्रति जो ममता बुद्धि है, राम है, मुर्छा है, उसका त्याग कर सकते हैं और वहीं वास्तव में त्याग है, अपरिग्रह है। ममता हट जाने पर, राग बुद्धि मिट जाने पर शरीर रहते हुए भी अपरिग्रही अवस्था है, देह होते हुए भी देहातीत अवस्था है, श्रीमद् राजचन्द्र के शब्दों में-"देह छतां जेहनी दशा, बरते देहातीत । ते ज्ञानीना चरणमां, वन्दन हो अगणीत ॥" देह के होते हुए भी इसके प्रति निष्काम और निर्विकल्प अवस्था जब प्राप्त हो जाती है, तब सम्पूर्ण अपरिग्रह की साधना होती है।
मूलतः मूर्छा अर्थात् ममत्व एवं मोह परिग्रह है। किन्तु, साधारण साधक सहसा उक्त उच्च स्थिति पर पहुँच नहीं सकता । अतः उसे ममत्व-त्याग की यात्रा में अनावश्यक एवं अनुपयोगी वस्तुओं का भी पूर्णतः या ऋमिक त्याग करना होता है । बाह्य वस्तुएँ साधारण व्यक्ति क्त के लिए माकी देत बन जाती है। अतः कार्य का कारण में उपचार करके वस्तयों को भी परिग्रह के क्षेत्र में माना गया है। और, उनके त्याग का यथाशक्ति उपदेश दिया गया है। स्पष्ट है, वस्तु त्याग दे, फिर भी उसकी आसक्ति रखे, तो वह वस्तु के अभाव में भी परिग्रह की कोटि में आ जाता है। अतः परिग्रह का चिन्तन द्रव्य और भाव' दोनों दृष्टि करना आवश्यक है।
अपरिग्रह : अनासक्ति योग
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