Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 345
________________ भारत की संस्कृति की मूल आत्मा है। भारत के जन-जन की और भारत के मन-मन की संस्कृति का मूल आधार है—दया, दान और दमन। प्राण-प्राण के प्रति दया करो, मुक्त भाव से दान करो और अपने मन के विकल्पों का दमन करो। भारत के जन-जन के मन-मन में दया, दान एवं दमन का ऊर्जस्वी भाव भरा है। वेदों ने इसी को गाया, पिटकों ने इसी को ध्याया और आगमों ने इसी को जन-जीवन के कण-कण में रमाया । क्रूरता से मनुष्यता को सुख नहीं मिला, तब दया जागी। संग्रह में मनुष्य को शान्ति नहीं मिली, तब दान पाया। भोग में मनुष्य को चैन नहीं मिला, तब दमन आया । विकृत जीवन को संस्कृत बानाने के लिए भारतीय संस्कृति के भण्डार में दया, दान और दमन से बढ़कर, अन्य कोई धरोहर नहीं है, अन्य कोई सम्पत्ति नहीं है। अपने मूल रूप में भारत की संस्कृति एक होकर भी धारा रूप में वह अनेक है। वेद-मार्ग से बहने वाली धारा वैदिक संस्कृति है। पिटक मार्ग से बहने वाली धारा बौद्ध संस्कृति है। आगम मार्ग से बहने वाली धारा जैन संस्कृति है। भारत की संस्कृति मल में एक होकर भी वेद, जिन और बुद्ध रूप में वह त्रिधाराओं में प्रवाहित है। वेद दान का, बुद्ध दया का और जिन दमन का प्रतीक है। अपने मनोविकारों को दमित करने वाला विजेता ही जिन होता है और जिन-देव की संस्कृति ही वस्तुतः आत्म-विजेता की संस्कृति है। __ भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण स्वरूप को समझने के लिए और उसकी सम्पूर्ण सीमा का अंकन करने के लिए, उसे दो भागों में विभक्त करना होगा--ब्राह्मण की संस्कृति और श्रमण की संस्कृति । ब्राह्मण और श्रमण ने युग-युग से भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व किया है और किसी न किसी रूप में वह आज भी करता है। ब्राह्मण विस्तार का प्रतीक है और श्रमण शम, श्रम और सम का प्रतीक माना जाता है। जो अपना विस्तार करता है, वह ब्राह्मण है और जो शान्ति, तपस्या तथा समत्वयोग का साधक है, वह श्रमण है। श्रम और साधना दोनों का एक ही अर्थ है। प्रत्येक साधना श्रम है और प्रत्येक श्रम साधना है--यदि उसमें मन का पविन रस उँडेल दिया गया हो। ब्राह्मण-संस्कृति विस्तारवादी संस्कृति है, वह सर्वत्र फैल जाना चाहती है, जब कि श्रमण-संस्कृति अपने को संयमित करती है। जहाँ विस्तार है, वहाँ भोग है। जहाँ सीमा है, वहाँ त्याग है। इसका अर्थ यह है कि ब्राह्मण-संस्कृति भोग पर अाधारित है और श्रमण-संस्कृति त्याग पर । मेरे विचार में भारतीय समाज को यथोचित भोग और यथोचित त्याग दोनों की आवश्यकता है। क्योंकि शरीर के लिए भोग की आवश्यकता है और आत्मा के लिए त्याग की। भोग और योग का यथार्थ विकासमूलक संतुलन एवं सामञ्जस्य ही भारतीय संस्कृति का मूल रूप है। भारत के ब्राह्मण ने ऊँचे स्वर में शरीर की आवश्यकताओं पर अधिक बल दिया। मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि ब्राह्मणसंस्कृति प्रवृत्तिवादी है और श्रमण-संस्कृति निवृत्तिवादी है। प्रवृत्ति और निवृत्ति मानवीय जीवन के दो समान पक्ष है। जबतक साधक, साधक अवस्था में है, तबतक उसे शुभ प्रवृत्ति की आवश्यकता रहती है, किन्तु जब साधक अपनी साधना के द्वारा साध्य की चरम कोटि को छू लेता है, तब उसके जीवन में निवृत्ति स्वतः ही आ जाती है। अशुभ से शुभ और अन्ततः शुभ से शुद्ध पर पहुँचना ही मंस्कृति का चरम परिपाक है। मेरे विचार में भारतीय समाज को स्वस्थता प्रदान करने के लिए ब्राह्मण और श्रमण दोनों की आवश्यकता रही है और अनन्त भविष्य में भी दोनों की आवश्यकता रहेगी। आवश्यकता है, केवल दोनों के दृष्टिकोण में सन्तुलन स्थापित करने की और समन्वय साधने की। भारतीय संस्कृति का स्वरूप : भारत के जन-जीवन की संस्कृति का रूप सामासिक एवं सामूहिक रहा है और उसका विकास भी धीरे-धीरे हुआ है। इतिहास के कुछ विद्वान यह भी दावा करते हैं कि भारतीय संस्कृति का प्रारम्भ आर्यों के आगमन के साथ हुआ था। किन्तु यह विचार समीचीन नहीं कहा जा सकता। क्योंकि जिन्होंने 'हड़प्पा' और 'मोहनजोदड़ो' की सभ्यता और संस्कृति ३२६ Jain Education Interational पन्ना समिक्खए धम्म www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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