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खड़े होते हैं । हमें आज, धर्म-ग्रन्थों में वर्णित साम्प्रदायिक क्रिया-काण्डों के एकान्त आग्रह को एक तरफ रखकर जीवन व्यवहार्य धर्म की प्ररूपणा करनी है, उन्हें कार्यान्वित करना है। श्री सबकी मूल आस्था को एक साथ संघबद्ध करके समन्वय का आदर्श परिचालित करना है । पारस्परिक सम्मान एवं प्रेम का उदात्त भाव, इस दशा में हमारा महान् सहयोगी बनकर कृष्ण- सरीखे सारथी का काम करेगा। वहीं से धर्म का एक विराट् रूप, सर्वधर्म समन्वय की भावना से उद्भूत हो सकता है ।
इस प्रकार अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए यह आवश्यक है कि हर धर्म समन्वय का स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाए । और, समन्वय का सिद्धान्त तभी सुदृढ़ बन सकता है, जबकि अपने आपको ही पूर्ण सत्य और दूसरों को सर्वांशतः गलत मानने की मनोवृत्ति दूर हो, यानि दूसरों के विचार को भी अमुक रूप सही माना जाए। साथ ही देश और काल के साथ अपने को प्रभिनियोजित किया जाए, अर्थात् देश और काल के साथ भी समन्वय किया जाए ।
आत्मा का मूल धर्म शुद्ध ज्ञानोपयोग रूप वीतराग-भाव है। जितना-जितना साधक के अन्तर्मन में से राग-द्वेष का भाव कम होगा, उतना उतना वीतराग-धर्म ज्योतिर्मय होगा । अन्यत्र सर्वत्र विवाद हो सकते हैं, किन्तु वीतराग धर्म में किसी का कोई विवाद नहीं है । आत्म-चैतन्य की अशुद्ध-स्थिति अधर्म है और शुद्ध-स्थिति धर्म है। ग्रात्म चेतना पर राग-द्वेष एवं तज्जन्य हिंसादि विकारों का मल जम जाता है, तो वह अशुद्ध चेतना अधर्म है और यही संसार का अर्थात् बन्धन का मूल है। विकार ही तो संसार है और विकारों से मुक्त पूर्ण निविकार स्थिति मोक्ष है । धर्म मुक्ति का साधन है। अतः राग-द्वेष की क्रमिक क्षीणता होना और वीतरागभाव का क्रमिक विकास होना, साधक के लिए आवश्यक है। उक्त स्पष्टीकरण पर से सम्प्रदाय और धर्म का स्पष्ट अन्तर परिलक्षित हो जाता है । अतः वीतराग भावना से अनुप्राणित सम्प्रदाय ही उपादेय है। इसके विपरीत, जो सम्प्रदाय Satara भावना से शून्य है, वे सम्प्रदाय नहीं, एक प्रकार के सम्प्रदाह है, जो जन-जीवन घृणा, विद्वेष आदि की आग में जलाते रहते हैं । आत्म-शान्ति के लिए सम्प्रदाहक संप्रदायों से मुक्त होना अत्यावश्यक है ।
सर्व-धर्म समन्वय: श्रनाग्रह-दृष्टि
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