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प्रामाणिकता को भी भूल गया है। येन-केन-प्रकारेण धन-संचय करने की ओर ही लगा हुआ है। इस प्रकार 'अर्थ-लोलुपता' चोरी का अन्तरंग कारण है ।
१. बेकारी: चोरी के बहुत कारण हैं, जिनमें चार कारण मुख्य हैं । बेकारी, इनमें प्रथम कारण हैं । काम धन्धा नहीं मिलने से, बेकार हो जाने से, फलत: अपनी आजीविका ठीक तरह नहीं चला सकने के कारण कितने ही दुर्बल मनोवृत्ति के अज्ञानी 'व्यक्ति चोरी करना सीखते हैं । जो प्रबुद्ध और प्रामाणिक होते हैं, वे तो मरण पसन्द करते हैं, पर चोरी करना नहीं चाहते हैं । परन्तु ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं । अधिकांश वर्ग तो बेकारी से घबरा कर काम-धन्धा नहीं मिलने से आखिरकार पेट का खड्डा भरने के लिए चोरी का मार्ग पकड़ लेता है ।
२. अपव्यय : चोरी का दूसरा कारण-- अपव्यय है । अपव्यय करना भी चोरी सीखाता है । अधिकांशतः श्रीमंताई के अहंकार या भोग-वृत्ति के कारण मनुष्य फिजूल - खर्ची बन जाता है । एक बार हाथ के खुल जाने पर, फिर उसे काबू में रखना कठिन हो जाता है । अपव्ययी के पास पैसा टिकता नहीं है और जब वह निर्धन हो जाता है, तब वह अपनी फिजूल खर्ची की आदत से इधर-उधर किसी-न-किसी रूप में चोरी करने लग जाता है । अनेक व्यक्ति विवाह आदि प्रसंग में कर्ज लेकर खर्च करते हैं, परन्तु बाद में जब उसे चुकाना पड़ता है और कोई आमदनी का जरिया नहीं होता है, तब वे चोरी का मार्ग ग्रहण करते हैं । इस प्रकार किसी भी प्रकार की फिजुल खर्ची या निरर्थक खर्च मनुष्य को अनैतिक मार्ग पर खींच ले जाता है। आज के मनुष्य दुनिया की नजरों में, जो खुली चोरी कही जाती है उससे भले ही दूर रहें, पर शोषण अनीति की गुप्त चोरी की तरफ झुकते ही हैं ।
३. मान-प्रतिष्ठा : चोरी का तीसरा कारण भान प्रतिष्ठा है। मनुष्य बड़ा बनने के लिए विवाह आदि प्रसंगों में अपनी शक्ति से बढ़कर खर्च करता है । पश्चात् इस क्षति की पूर्ति कैसे करता है ? अनीति और शोषण द्वारा हो तो यह पूर्ति होती है न ? ४. आदत : चोरी का चौथा कारण है मन की आदत । अशिक्षा और कुसंगति से कितने ही व्यक्तियों की आदत चोरी करने की हो जाती है । ये लोग चोरी करते हैं, क्यों करते हैं ? इसका कोई उत्तर नहीं ? बस, एक आदत है, कहीं से चुपके से जो मिल जाए, उठा लेना ।
कुछ भी हो, किसी भी रूप में हो, चोरी का आन्तरिक कारण अर्थ-लोलुपता है, जो कि संतोष वृत्ति प्राप्त करने से दूर हो सकती है। और वह संतोष-वृत्ति धर्माचरण से ही प्राप्त की जा सकती है ।
अस्तेय के प्रतिचार :
अस्तेय व्रत के पाँच प्रतिचार हैं। इस संदर्भ में तत्त्वार्थ का यह सूत्र द्रष्टव्य है-" स्तेन प्रयोग - तदाहृतादान- विरुद्धराज्यातिक्रम- हीनाधिक- मानोन्मान प्रतिरूपकव्यवहारा ।
१. स्तेन प्रयोग : किसी को चोरी करने की प्रेरणा देना तथा उसके काम से सहमत होना, यह प्रथम प्रतिचार-दोष है । काला बाजार (Black Market ) से चोरी का अनाज लेकर किसी ने जीमनवार (प्रीति भोज) किया हो, उसमें भोजन करने के लिए जाना भी चोरी के काम में सहमत होने जैसा ही है । कुछ 'धन्ना सेठ' कहे जाने वाले लोग तस्कर - व्यापार से अर्जित पैसे के बल पर विवाह आदि प्रसंगों में परम्परागत रूढ़ियों एवं बड़े घरों के बड़े रीति-रिवाज आदि के वश में हो लम्बे-चौड़े जीमनवार करते हैं और अज्ञानी मानवों की वाने वाही लूटते हैं । काल बाजार की वस्तु खरीदने वाला स्वयं तो पाप का भागीदार बनता ही है, पर साथ में काला बाजार करने वाले को उत्तेजन भी देता है। चोरी किसी एक व्यक्ति ने की हो, फिर भी उस काम में किसी भी तरह से भाग लेने वाला भी दोषी माना गया है । इस प्रकार शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार
अस्तेय व्रत : आदर्श प्रामाणिकता
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