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मन और इन्द्रियों को खुला छोड़ देता है, तो वे अनियंत्रित एवं उच्छृङ्खल वासनाएँ उस को तबाह कर देती हैं, पतन के अन्ध गर्त में गिरा देती हैं।
वस्तुतः शक्ति, शक्ति ही है। निर्माण या ध्वंस की ओर मुड़ते उसे देर नहीं लगती । इसलिए यह अनुशासक (Controller) के हाथ में है कि वह उसका विवेक के साथ उपयोग करे। वह अपनी शक्ति को नियंत्रण से बाहर न होने दे । श्रावश्यकता पड़ने पर शक्ति का उपयोग हो सकता है, परन्तु विवेक के साथ । विवेकशील का काम एक कुशल इंजीनियर ( expert engineer) की भाँति है। उसे अपने काम में सदा सावधान रहना पड़ता है और समय एवं परिस्थितियों का भी ध्यान रखना पड़ता है ।
मान लो, एक इंजीनियर पानी के प्रवाह को रोककर उसकी ताकत का मानवजाति के हित में उपयोग करना चाहता है। इसके लिए वह तीनों ओर से मजबूत पहाड़ियों से प्रवृत्त स्थल की ओर एक दीवार बनाकर बाँध (dam) का रूप देता है। साथ ही वह उसमें कई द्वार भी बनाता है, ताकि उनके द्वारा अनावश्यक पानी को निकालकर बाँध की सुरक्षा की जा सके । बाँध में जितने पानी को रखने की क्षमता है, उतने पानी के भरने तक तो बाँध को कोई खतरा नहीं होता । परन्तु, जब उसमें उसकी क्षमता से अधिक पानी भर जाता है, उस समय भी यदि इंजीनियर उसके द्वार को खोलकर फालतू पानी को बाहर नहीं निकालता है, तो वह पानी का प्रबल स्रोत इधर-उधर कहीं भी बाँध की दीवार को तोड़ देता है और लक्ष्यहीन बहने वाला उद्दाम जल प्रवाह मानव-जाति के लिए विनाशकारी प्रलय का दृश्य उपस्थित कर देता है । अतः कोई भी कुशल इंजीनियर इतनी बड़ी भूल नहीं करता कि जो देश के लिए खतरा पैदा कर
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यही स्थिति हमारे मन के बाँध की है, वासनाओं के प्रवाह को पूर्णतः नियंत्रण में रखना, यह साधक का परम कर्त्तव्य है । परन्तु उसे यह श्रवश्य देखना चाहिए कि उसकी क्षमता कितनी है । यदि वह उन पर पूर्णतः नियंत्रण कर सकता है और समुद्र पायी पौराणिक अगस्त्य ऋषि की भाँति, वासना के समुद्र को पीकर पचा सके, तो यह आत्म-विकास के लिए स्वर्ण अवसर है । परन्तु यदि वह वासनाओं पर पूरा नियंत्रण करने की क्षमता नहीं रखता है, फिर भी वह उस प्रचण्ड प्रवाह को बाँधे रखने का असफल प्रयत्न करता है, तो यह उसके जीवन के लिए खतरनाक भी बन सकता है ।
भगवान् महावीर ने साधना के दो रूप बताए हैं - १. वासनाओं पर पूर्ण नियंत्रण और २. वासनाओं का केन्द्रीकरण । या यों कहिए - पूर्ण ब्रह्मचर्य श्रीर प्रांशिक ब्रह्मचर्य । जो साधक पूर्ण रूप से वासनात्रों पर नियंत्रण करने की क्षमता नहीं रखता है, वह यदि यथावसर वासना के स्रोत को निर्धारित दिशा में बहने के लिए उसका द्वार खोल देता है, तो कोई भयंकर पाप नहीं करता है । वह उच्छृङ्खल रूप से प्रवहमान वासना के प्रवाह को केन्द्रित करके अपने को भयंकर अधःपतन से बचा लेता है।
जैन धर्म की दृष्टि से विवाह वासनाओं का केन्द्रीकरण है। असीम वासनाओं को सीमित करने का मार्ग है । नीतिहीन पाशविक जीवन से मुक्त होकर नीतियुक्त मानवीय जीवन को स्वीकार करने का साधन है । पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर बढ़ने का कदम है, अत: जैन धर्म में विवाह के लिए स्थान है, परन्तु पशु-पक्षियों की तरह अनियंत्रित रूप से भटकने के लिए कोई स्थान नहीं है । वेश्यागमन और परदार सेवन के लिए कोई छूट नहीं है। जैन धर्म वासना को केन्द्रित एवं मर्यादित करने की बात को स्वीकार करता है और साधक की शक्ति एवं शक्ति को देखते हुए विवाह को अमुक अंशों में उपयुक्त भी मानता है । परन्तु वह वासनाओं को उच्छृङ्खल रूप देने की बात को बिल्कुल उपयुक्त नहीं मानता। वासना का अनियंत्रित रूप, जीवन की बर्बादी है, प्रात्मा का पतन है ।
वासना को केन्द्रित करने के लिए प्रत्येक स्त्री-पुरुष ( गृहस्थ ) के लिए यह प्रावश्यक है कि वह जिसके साथ विवाह बन्धन में बँध चुका है या बँध रहा है, उसके अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री-पुरुष को वासना की दृष्टि से नहीं, भ्रातृत्व एवं भगिनीत्व की दृष्टि से देखे ।
ब्रह्मचर्य : साधना का सर्वोच्च शिखर
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