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भी नहीं करता, और अतिपरिणामी की तरह कारणवश एक अकल्प्य वस्तु मांगने पर अन्य अनेक प्रकल्प्य वस्तु लाने को भी नहीं कहता। परिणामवादी ही जैन-साधकों का समुज्ज्वल प्रतिनिधि चित्र है। क्योंकि वह समय पर देश, काल आदि की परिस्थिति के अनुरूप अपने को ढाल सकता है। उसमें जहाँ संयम का जोश रहता है, वहाँ विवेक का होश भी रहता है।
अपरिणामी, उत्सर्ग से ही चिपटा रहेगा। और अतिपरिणामी अपवाद का भी दुरुपयोग करता रहेगा। किस समय पर और कितना परिवर्तन करना, यह उसे भान ही नहीं रहेगा। अपरिणामी, सर्वथा अपरिवर्तित क्रिया-जड़ होकर रहेगा, तो अतिपरिणामी, परिवर्तन के प्रवाह में बहता ही जाएगा, कहीं विराम ही न पा सकेगा। धर्म के रहस्य को, साधना के महत्व को परिणामी साधक ही सम्यक् प्रकार से जान सकता है, और तदनुरूप अपने जीवन को पवित्र एवं समुज्ज्वल बनाने का नित्य-निरंतर प्रयत्न कर सकता है।
अहिंसा का उत्सर्ग और अपवाद :
भिक्षु का यह उत्सर्ग मार्ग है, कि वह मनसा, वाचा, कायेन किसी भी प्रकार के स्थूल एवं सूक्ष्म जीवों की हिंसा न करे। क्यों नहीं करे? इसके समाधान में दशवकालिक सूत्र में भगवान ने कहा है--"जगती तल के समग्र जीव-जन्तु जीवित रहना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। क्योंकि सब को अपना जीवन प्रिय है। प्राणि वध घोर पाप है। इसलिए निर्ग्रन्थ भिक्षु, इस घोर पाप का परित्याग करते हैं।"३४
उपर्युक्त कथन, जन-साधना-पथ में प्रथम अहिंसा महाव्रत का उत्सर्ग मार्ग है। परन्तु, कुछ परिस्थितियों में इसका अपवाद भी होता है। वैसे तो अहिंसा के अपवादों की कोई इयत्ता नहीं है। तथापि वस्तु-स्थिति के यत्किचित परिबोध के लिए प्राचीन आगमों तथा टीकाग्रन्थों में से कुछ उद्धरण उपस्थित किए जा रहे हैं।
भिक्षु के लिए हरित वनस्पति का परिभोग निषिद्ध है। यहाँ तक कि वह हरित वनस्पति का स्पर्श भी नहीं कर सकता। यह उत्सर्ग मार्ग है। परन्तु, इसका अपवाद मार्ग भी है। प्राचारांग सूत्र में कहा गया है, कि "एक भिक्ष, जो कि अन्य मार्ग के न होने पर किसी पर्वतादि के विषम-पथ से जा रहा है। यदि कदाचित् वह स्खलित होने लगे, गिरने लगे, तो अपने आप को गिरने से बचाने के लिए तरु को, गुच्छ को, गुल्म को, लता को, बल्ली को तथा तृण हरित आदि को पकड़ कर संभलने का प्रयत्न करे । ३५
भिक्षु का उत्सर्ग मार्ग तो यह है, कि वह किसी भी प्रकार की हिंसा न करे। परन्तु, हरित वनस्पति को पकड़कर चढ़ने या उतरने में हिंसा होती है, यह अपवाद है। यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाए, तो यह हिंसा भी हिंसा के लिए नहीं होती है, अपितु अहिंसा के लिए ही होती है। गिर जाने पर अंग-भंग हो सकता है, फिर प्रार्त-रौद्र दुर्ध्यान का संकल्प-विकल्प प्रा सकता है, दूसरे जीवों को भी गिरता हुआ हानि पहुँचा सकता है। अतः भविष्य की इस प्रकार स्व-पर हिंसा की लंबी शृखला को ध्यान में रख कर यह अहिंसा का अपवाद है, जो मूल में अहिंसा के लिए ही है।
वर्षा बरसते समय भिक्षु अपने उपाश्रय से बाहर नहीं निकलता। क्योंकि जलीय जीवों की विराधना होती है, हिंसा होती है। पूर्ण अहिंसक भिक्षु के लिए सचित्त जल का स्पर्शमात्र भी निषिद्ध है। भिक्षु का यह मार्ग उत्सर्ग मार्ग है।
परन्तु, साथ में इसका यह अपवाद भी है, कि चाहे वर्षा बरस रही हो, तो भी भिक्षु
३४. सब्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जि।
तम्हा पाणिवहं घोरं, निगंथा वज्जयंति शं||----दशवकालिक ६, ११ ३५. से तत्य पयलमाणे वा रुक्खाणि वा, गुच्छाणि वा, गुम्माणि वा, लयाओ वा, वल्लीओ वा, तणाणि चा, हरियाणि वा, अवलंबिय अवलंबिय उत्तरिपजा. . . ... ।
-आचारांग, २ श्रुत० ईर्याध्ययन, उद्देश २ उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग
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