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अशान्ति नहीं है। प्रशान्ति और विग्रह का वातावरण वहीं पैदा होता है, जहाँ कि मनुष्य 'स्व' से बाहर फैलना शुरू करता है, दूसरों के अधिकारों को कुचलता है और दूसरों के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाने लगता है।
प्राचीन जैन-साहित्य उठाकर आप देख सकते हैं कि भगवान महावीर ने इस दिशा में कितने बड़े स्तुत्य प्रयत्न किए हैं। वे अपने प्रत्येक गृहस्थ शिष्य को पाँचवें अपरिग्रहव्रत की मर्यादा में सर्वदा 'स्व' में ही सीमित रहने की शिक्षा देते हैं। व्यापार तथा उद्योग आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने न्याय प्राप्त अधिकारों से कभी भी आगे नहीं बढ़ने दिया। प्राप्त अधिकारों से आगे बढ़ने का अर्थ है, अपने दूसरे साथियों के साथ संघर्ष में उतरना।
जैन-संस्कृति का अमर आदर्श है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी उचित आवश्यकता की पूर्ति के लिए, अपनी मर्यादा में रहते हुए, उचित साधनों का ही प्रयोग करे। आवश्यकता से अधिक किसी भी सुख-सामग्री का संग्रह कर रखना, जैन-संस्कृति में चोरी माना जाता है। व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र क्यों लड़ते हैं ? इसी अनुचित संग्रह-वृत्ति के कारण । दूसरों के जीवन की, जीवन के सुख-साधनों की उपेक्षा करके, मनुष्य कभी भी सुख-शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता । अहिंसा के बीज अपरिग्रह-वृत्ति में ही ढुंढे जा सकते हैं। एक अपेक्षा से कहें तो अहिंसा और अपरिग्रह-वृत्ति दोनों पर्यायवाची शब्द है।
युद्ध और अहिंसा :
आत्मरक्षा के लिए उचित प्रतिकार के साधन जुटाना, जैन-धर्म के विरुद्ध नहीं है। परन्तु अावश्यकता से अधिक संगृहीत एवं संगठित शक्ति अवश्य ही संहार-लीला का अभिनय करेगी, अहिंसा को मरणोन्मुखी बनाएगी। अतएव आप आश्चर्य न करें कि पिछले कुछ वर्षों से जो शस्त्र-संन्यास का अान्दोलन चल रहा है, प्रत्येक राष्ट्र को सीमित युद्ध सामग्री रखने को कहा जा रहा है, वह जैन तीर्थंकरों ने हजारों वर्ष पहले चलाया था। आज जो काम कानून तथा संविधान के द्वारा लिया जा रहा है, उन दिनों वह उपदेश द्वारा लिया जाता था। भगवान् महावीर ने बड़े-बड़े राजाओं को जैन-धर्म में दीक्षित किया था और उन्हें नियम कराया गया था कि वे राष्ट्ररक्षा के काम में आने वाले आवश्यक शस्त्रों से अधिक शस्त्रसंग्रह न करें। साधनों का प्राधिक्य मनुष्य को उद्दण्ड और वेलगाम बना देता है। प्रभुता की लालसा में आकर वह कभी-न-कभी किसी पर चढ़ दौड़ेगा और मानव-संसार में युद्ध की प्राग भड़का देगा। इस दृष्टि से जैन तीर्थंकर हिंसा के मूल कारणों को उखाड़ने का प्रयत्न करते रहे हैं.। . .
जैन तीर्थंकरों ने कभी भी युद्धों का समर्थन नहीं किया। जहाँ अनेक धर्माचार्य साम्राज्यवादी राजाओं के हाथों की कठपुतली बनकर युद्ध का उन्मुक्त समर्थन करते आये हैं, युद्ध में मरने वालों को स्वर्ग का लालच दिखाते आये हैं, राजा को परमेश्वर का अंश बताकर उसके लिए सब कुछ अर्पण कर देने का प्रचार करते आये हैं, वहाँ जैन तीर्थंकर इस सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट और दृढ़ रहे हैं। 'प्रश्न व्याकरण' और 'भगवती सूत्र' युद्ध के विरोध में क्या कुछ कहते हैं ? यदि थोड़ा-सा कष्ट उठाकर देखने का प्रयत्न करेंगे, तो वहाँ बहुतकुछ युद्ध-विरोधी विचार-सामग्री प्राप्त कर सकेंगे। मगधाधिपति अजातशत्रु कणिक भगवान् महावीर का कितना उत्कृष्ट भक्त था ? 'प्रोपपातिक सूत्र' में उसकी भक्ति का चित्र चरम सीमा पर पहुँचा हुया है। प्रतिदिन भगवान् के कुशल-समाचार जान कर फिर अन्न-जल ग्रहण करना, कितना उग्र नियम है ! परन्तु वैशाली पर कणिक द्वारा होने वाले आक्रमण का भगवान ने जरा भी समर्थन नहीं किया। प्रत्युत कणिक के प्रश्न पर उसे अगले जन्म में नरक का अधिकारी बताकर उसके क्रूर-कर्मों को स्पष्ट ही धिक्कारा है। प्रजातशत्रु इस पर रुष्ट भी हो जाता है, किन्तु भगवान् महावीर इस बात की कुछ भी परवाह नहीं करते । भला, अहिंसा के अवतार उसके रोमांचकारी नर-संहार का समर्थन कैसे कर सकते थे?
पन्ना समिक्खए धम्म
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