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अहिंसा निष्क्रिय नहीं है
जैन तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट हिंसा निष्क्रिय अहिंसा नहीं है। वह विधेयात्मक है । जीवन के भावात्मक रूप- प्रेम, परोपकार एवं विश्व बन्धुत्व की भावना से श्रोत-प्रोत है । जैन धर्म की अहिंसा का क्षेत्र बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत है । उसका आदर्श, स्वयं आनन्द से जीओ और दूसरों को जीने दो, यहीं तक सीमित नहीं है । उसका आदर्श है— दूसरों के जी में सहयोगी बनो । और अवसर आने पर दूसरों के जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन की आहुति भी दे डालो। वे उस जीवन को कोई महत्त्व नहीं देते, जो जन सेवा के मार्ग से सर्वथा दूर रहकर एकमात्र भक्ति-वाद के अर्थ- शून्य क्रियाकाण्डों में ही उलझा रहता है ।
भगवान् महावीर ने एक बार अपने प्रमुख शिष्य गणधर गौतम को यहाँ तक कहा था कि मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन दुःखियों की सेवा करना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। मेरे भक्त वे नहीं, जो मेरी भक्ति करते हैं, माला फेरते हैं । किन्तु मेरे सच्चे भक्त वे हैं, जो मेरी आज्ञा का पालन करते हैं । मेरी आज्ञा है- " प्राणिमात्र की श्रात्मा को सुख, सन्तोष और श्रानन्द पहुँचाओ ।"
भगवान् महावीर का यह महान् ज्योतिर्मय सन्देश आज भी हमारी आँखों के सामने है, इसका सूक्ष्म बीज 'उत्तराध्यन -सूत्र' की सर्वार्थ सिद्धि-वृत्ति में आज भी हम देख सकते हैं ।
वर्तमान परिस्थिति और अहिंसा :
अहिंसा के महान् सन्देशवाहक भगवान् महावीर थे। आज से ढाई हजार वर्ष पहले का समय, भारतीय संस्कृति के इतिहास में एक प्रगाढ़ अन्धकारपूर्ण युग माना जाता है | देवी-देवताओं के श्रागे पशु बलि के नाम पर रक्त की नदियाँ बहाई जाती थीं, माँसाहार और सुरापान का दौर चलता था। अस्पृश्यता के नाम पर करोड़ों की संख्या में मनुष्य अत्याचार 'चक्की' में पिस रहे थे। स्त्रियों को भी मनुष्योचित अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। एक क्या, अनेक रूपों में हिंसा की प्रचण्ड ज्वालाएँ धधक रहीं थीं, समूची मानव जाति उससे संत्रस्त हो रही थी । उस समय भगवन् महावीर ने संसार को हिंसा का अमृत सन्देश दिया । हिंसा का विषाक्त प्रभाव धीरे-धीरे शान्त हुआ और मनुष्य के हृदय में मनुष्य क्या, पशुओं के प्रति भी दया, प्रेम और करुणा की अमृत-गंगा बह उठी । संसार में स्नेह, सद्भाव और मानवोचित अधिकारों का विस्तार हुआ । संसार की मातृजाति नारी को फिर से योग्य सम्मान मिला। शूद्रों को भी मानवीय ढंग से जीने का अधिकार प्राप्त हुआ । और मूक पशुओं ने भी मनुष्य के क्रूर - हाथों से अभय-दान पाकर जीवन का अमोघ वरदान पा लिया।
अहिंसा एवं विभिन्न मत :
हिंसा की परिधि के अन्तर्गत समस्त धर्म और समस्त दर्शन समवेत हो जाते हैं, यही कारण है कि प्रायः सभी धर्मों ने इसे एक स्वर से स्वीकार किया है । हमारे यहाँ के चिन्तन में, समस्त धर्म-सम्प्रदायों में अहिंसा के सम्बन्ध में, उसकी महत्ता और उपयोगिता के सम्बन्ध में दो मत नहीं हैं, भले ही उसकी सीमाएँ कुछ भिन्न-भिन्न हों। कोई भी धर्म यह कहने के लिए तैयार नहीं कि हत्या करने में धर्म है। झूठ बोलने में धर्म है, चोरी करने में धर्म है, या ब्रह्मचर्य - व्यभिचार सेवन करने में धर्म है । जब इन्हें धर्म नहीं कहा जा सकता, तो हिंसा को कैसे धर्मं कहा जा सकता है ? हिंसा को हिंसा के नाम से कोई स्वीकार नहीं करता । अतः किसी भी धर्मशास्त्र में हिंसा को धर्म और अहिंसा को धर्म नहीं कहा गया है। सभी धर्मों ने अहिंसा को ही परम धर्म स्वीकार किया है ।
जीवन की अर्थवत्ता : श्रहिंसा में
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