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जन्मजात वैर भुला कर सहोदर बन्धु की तरह एक साथ बैठे रहते थे । न सबल में क्रूरता की हिंस्रवृत्ति रहती थी, और न निर्बल में भय, भय की आशंका। दोनों ओर एक जैसा स्नेह का सद्व्यवहार । इसी सन्दर्भ में प्राचीन कथाकार कहता है कि भगवान् के समसरण में सिंहिनी का दूध मृगुशिशु पीता रहता और हिरनी का सिंहशिशु - 'दुग्धं मृगेन्द्रवनितास्तमजं पिबन्ति ।' भारत के प्राध्यात्मिक जगत् का वह महान् एवं चिरंतन सत्य, भगवान् महावीर के जीवन में साक्षात् साकार रूप में प्रकट हुआ था । उन्होंने स्पष्टतः सूचित किया कि साधक के अन्तर्जीवन में भी जब अहिंसा की प्रतिष्ठा - पूर्ण जागृति होती है, तो उसके समक्ष जन्मजात वैरवृत्ति के प्राणी भी अपना वैर त्याग देते हैं, प्रेम की निर्मल धारा में अवगाहन करने लगते हैं -- "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ।'
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पन्ना समिक्ख धम्मं
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