________________
से अपराधी व्यक्ति के पास भी एक उज्ज्वल चरित होता है, जो कुछ सामाजिक परिस्थितियों के कारण या तो दब जाता है, या अविकसित रह जाता है। अतः न्यायासन के बौद्धिक वर्ग को अहिंसा के प्रकाश में दण्ड के ऐसे उन्नत, सभ्य, सुसंस्कृत मनोवैज्ञानिक तरीके खोजने चाहिए, जिनसे अपराधियों का सुप्त उज्ज्वल चरित्र सजग हो कर वह समाज के लिए उपयोगी साबित हो सके।
अहिंसा का सही मार्ग :
हो सकता है, कुछ अपराधी बहुत ही निम्न स्तर के हों, उन पर मनोविज्ञान से सम्बन्धित भद्र प्रयोग कारगर न हो सकें, फलतः उनको शारीरिक दण्ड देना आवश्यक हो जाता है । इस अनिवार्य स्थिति में भी अहिंसा दर्शन कहता है कि जहाँ तक हो सके, करुणा से काम लो । शारीरिक दण्ड भी सापेक्ष होना चाहिए, मर्यादित होना चाहिए. निरपेक्ष एवं मर्यादित नहीं । शान्त से शान्त माता भी कभी-कभी अपनी उद्धत सन्तान को चांटा मारने के लिए विवश हो जाती है, क्रुद्ध भी हो जाती है, किन्तु अन्तर् में उसका मातृत्व क्रूर नहीं होता, कोमल ही रहता है। माता के द्वारा दिए जाने वाले शारीरिक दण्ड में भी हितबुद्धि रहती है, विवेक रहता है, एक उचित मर्यादा रहती है । भगवान् महावीर का हिंसा - दर्शन अन्त तक इसी भावना को ले कर चलता है। वह मानव चेतना के परिष्कार एवं संस्कार में आखिर तक अपना विश्वास बनाए रखता है। उनका प्रदर्श है— अहिंसा से काम लो। यह न हो सके, तो अल्प से अल्पतर हिंसा का कम-से-कम हिसा का पथ चुनो, वह भी हिंसा के लिए नहीं, अपितु भविष्य की बड़ी हिंसा के प्रवाह को रोकने के लिए। इस प्रकार हिंसा में भी अहिंसा की दिव्य चेतना सुरक्षित रहनी चाहिए ।
श्रहिंसा: आज के परिप्रेक्ष्य में :
न्यायपूर्ण स्थिति को सहते रहना, अन्याय एवं प्रत्याचार को प्रोत्साहन देना है। यह दब्बूपन का मार्ग अहिंसा का मार्ग नहीं है। कायरता, कायरता है, अहिंसा नहीं है । हिंसा मानव से अन्याय-अत्याचार के प्रतिकार का न्यायोचित अधिकार नहीं छीनती है । वह कहती है, प्रतिकार करो, परन्तु प्रतिकार के प्रवेश में मुझे मत भूल जाना । प्रतिकार के मूल में विरोधी के प्रति सद्भावना रखनी चाहिए, बुरी भावना नहीं। प्रेम, सद्भाव, नम्रता, श्रात्मत्याग अपने में एक बहुत बड़ी शक्ति है । कैसा भी प्रतिकार हो, इस शक्ति का चमत्कार एक दिन अवश्य होता है. इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ।
भगवान् महावीर की हिंसा दृष्टि :
भगवान् महावीर ने अहिंसा को केवल आदर्श के रूप में ही उपस्थित नहीं किया, अपितु अपने जीवन में उतार कर उसकी शत-प्रतिशत यथार्थता भी प्रमाणित की । उन्होंने अहिंसा के सिद्धान्त और व्यवहार को एक करके दिखा दिया। उनका जीवन उनके अहिंसा योग के महान् आदर्श का ही एक जीता-जागता मूर्तिमान रूप था । विरोधी-से-विरोधी के प्रति भी उनके मन में कोई घृणा नहीं थी, कोई द्वेष नहीं था । वे उत्पीड़क एवं घातक विरोधी के प्रति भी मंगल कल्याण की पवित्र भावना ही रखते रहे । संगम जैसे भयंकर उपसर्ग देने वाले व्यक्ति के लिए भी उनकी आँखें करुणा से गीली हो आई थीं। वस्तुतः उनका कोई विरोधी था ही नहीं। उनका कहना था-- विश्व के सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, मेरा किसी के भी साथ कुछ भी वैर नहीं है- 'मित्तो मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणई ।'
भगवान् महावीर का यह मैत्रीभावमूलक हिंसा भाव इस चरम कोटि पर पहुँच गया था कि उनके श्रीचरणों में सिंह और मृग, नकुल और सर्प — जैसे प्राणी भी अपना
श्रहिंसा : विश्व शान्ति की आधार भूमि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
२७१ www.jainelibrary.org.