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जैन-धर्म में अहिंसा भावना :
आज से पच्चीस-सौ वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने अहिंसा की नींव को सुदृढ़ बनाने के लिए, हिंसा के विरोध में प्रतिक्रांति की। अहिंसा और धर्म के नाम पर हिंसा का जो नग्न नृत्य हो रहा था, जनमानस भ्रान्त किया जा रहा था, वह भगवान् महावीर से देखा नहीं गया। उन्होंने हिंसा पर लगे धर्म के मुखौटों को उतार फेंका, और सामान्य जनमानस को उबुद्ध करते हुए कहा--'हिंसा कभी भी धर्म नहीं हो सकती। विश्व के सभी प्राणी, वे चाहे छोटे हों या बड़े, पशु हों या मानव सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सबको सूख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। सबको अपना जीवन प्यारा है। जिस हिंसक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नहीं करते, उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता। जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सभी पसन्द करते हैं। यही जिन-शासन के उपदेशों का सार है, जो कि एक तरह से सभी धर्मों का सार है। किसी के प्राणों की हत्या करना, धर्म नहीं हो सकता । अहिंसा, संयम और तप यहीं वास्तविक धर्म है। इस लोक में जितने भी बस और स्थावर प्राणी हैं, उनकी हिंसा न जान में करो, न अनजान में करो और न दूसरों से ही किसी की हिंसा करायो ।' क्योंकि सब के भीतर एक-सी आत्मा है, हमारी तरह सबको अपने प्राण प्यारे हैं, ऐसा मानकर भय और वैर से मुक्त होकर किसी भी प्रागी की हिंसा न करो। जो व्यक्ति खुद हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और दूसरों की हिंसा का अनुमोदन करता है, वह अपने लिए वर ही बढ़ाता है। अतः अन्य सब प्राणियों के प्रति वैसा ही भाव रखो, जैसा कि अपनी प्रात्मा के प्रति रखते हो। सभी जीवों के प्रति अहिंसक होकर रहना चाहिए। सच्चा संयमी वही है, जो मन, वचन और शरीर से किसी की हिंसा नहीं करता । यह है--भगवान् महावीर की आत्मौपम्य दृष्टि, जो अहिंसा में प्रोत-प्रोत होकर विराट् विश्व के सम्मुख आत्मानुभूति का एक महान् गौरव प्रस्तुत कर रही है।
जैन-दर्शन में अहिंसा के दो पक्ष है। 'नहीं मारना'---यह अहिंसा का एक पहलू है, उसका दूसरा पहल है---'मैत्री, करुणा और सेवा।' यदि हम सिर्फ अहिंसा के नकारात्मक पहलू पर ही सोचें, तो यह अहसा की अधूरी समझ होगी। सम्पूर्ण अहिंसा की साधना के लिए प्राणिमात्र के साथ मैत्री सम्बन्ध रखना, उसकी सेवा करना, उसे कष्ट से मुक्त करना आदि विधेयात्मक पक्ष पर भी समुचित विचार करना होगा। जैन पागमों में जहाँ अहिंसा
१. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जोबिउन मरिज्जि।
--दशवकालिक सूत्र, ६।११ २. सव्वे पाणा पिाउया सुहसाया दुहपडिकूला।
--यांचारांग सूत्र १।२।३ ३. जं इच्छसि अप्पणतो, जंचन इच्छसि अप्पणतो।। तं इच्छ परस्स वि, एत्तियमितं जिणसासणयं ।।।
--बहत्कल्प भाष्य, ४५८४ ४. धम्मो मंगलमुक्किट्ट, अहिंसा संजमो तवो।
-दशवकालिक, १११ ५. जावन्ति लोए पाणा तसा अदुव थावरा। ते जाणमजाणं वा न हणे नो वि घायए।
-दशवकालिक ६. सयंऽतिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहि घायए। हणन्तं वाऽणुजाणाइ वेरं बढ़ई अप्पणो ।।
---सूत्र कुताङ्ग, १1१1१६३ ७. अज्झत्थं सव्वओ सब्वं दिस्स पाणे पियाउए । न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए ।।
-उत्तराध्ययन, ८.१०
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पन्ना समिक्खए पम्म
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