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से संयमपोषक के रूप में करता है, मूर्च्छा अर्थात राग-भाव से, भोगासक्ति से नहीं करता है । अतः उक्त भंग शुद्ध है, इसमें परिग्रहमूलक कर्म-बन्धता नहीं है ।
२. मुच्छियस्त तदसंपत्तीय भावप्रो, न दव्वओो ।
• किसी अभीष्ट वस्तु के प्रति मूर्च्छा है, आसक्ति है, किन्तु वह प्राप्त नहीं है । यहाँ भाव से परिग्रह है, द्रव्य से नहीं । यह द्वितीय भंग परिग्रह से सम्बन्धित वस्तु के न होने पर भी परिग्रह है, फलतः परिग्रहमूलक कर्म-बन्ध का हेतु है ।
परिग्रह से सम्बन्धित प्रथम और द्वितीय भंग प्रतीक अर्थ-गंभीर हैं, अतः पूर्वाग्रहों से मुक्त तटस्थ चिन्तन की अपेक्षा रखते हैं। साधक व्यक्ति के पास किसी उपयोगी वस्तु का होना या न होना, परिग्रह की दृष्टि से मुख्य नहीं है। मुख्य है, वस्तु के प्रति व्यक्ति की भावना और दृष्टि । ग्रमुक वस्तु यदि किसी विशिष्ट उपयोगिता की दृष्टि से साधनरूप में रखी जाती है, एकमात्र आवश्यक शुद्ध उपयोगिता का ही भाव है, मूर्च्छा नहीं है, राग भाव नहीं है, तो वह वस्तु बाहर में परिग्रह की गणना में होते हुए भी अन्तरंग भाव में परिग्रह नहीं है । यह बात सिद्धान्त से प्रमाणित है, दशवैकालिक सूत्र (६, २१ ) में परिग्रह की परिभाषा करते हुए कहा है- 'मुच्छा परिग्गहो ।' वस्तु नहीं, बस्तु की मूर्छा ही परिग्रह है। जैन धर्म की सभी परंपराओं को मान्य मोक्षशास्त्र तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ( ७, १७) में पूर्वविद बहुश्रुत शिरोमणि आचार्य उमास्वाति ने भी दशवैकालिक के प्राकृत पाठ को संस्कृत में रूपान्तरित करते हुए शब्दश: यही कहा है- 'मूर्च्छा परिग्रहः ।' अर्थात मूर्च्छा परिग्रह है । परिग्रह चित्त की एक रागात्मक वृत्ति है । यदि वह है, तो वस्तु के न होते हुए भी परिग्रह है, और यदि वह रागात्मक वृत्ति नहीं है, तो वस्तु के होते हुए भी परिग्रह नहीं । वस्तु, मात्र वस्तु है, न वह परिग्रह है और न अपरिग्रह | साधना के लिए उपयोगी वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोछन आदि को इसीलिए परिग्रह की कोटि से लग करते हुए दशवैकालिक (६, २२) में कहा है- 'न सो परिग्गहो ।' अर्थात् ये साधनोपयोगी सभी वस्तुएँ परिग्रह नहीं हैं ।
उपर्युक्त परिग्रह और अपरिग्रह की व्याख्या के आधार पर ही देवाधिदेव तीर्थकरों की छत, चामर, सिंहासन तथा समवसरण यादि की अनेक विभूतियाँ अपरिग्रह की कोटि में आती हैं। बाहर में स्वर्ग के इन्द्र तथा भूमण्डल के चक्रवर्ती आदि के परिग्रह से भी महान् परिग्रह हैं तीर्थंकर देवों का, परन्तु उनकी पूर्णत: निसंगता एवं वीतरागता ही उक्त द्रव्य परिग्रह को अन्तरंग में भाव परिग्रह की भूमिका तक पहुंचने नहीं देती है ।
जहाँ तक रागादि भाव रूप परिग्रह का प्रश्न है, वह तो यदि देह में भी प्रासक्ति है, जीवन का मोह है, यश आदि की इच्छा है, यहाँ तक कि मुक्ति की भी कामना है, तो ये सब भी परिग्रह की सीमा में प्रा जाते हैं। आसक्ति मात्र परिग्रह है, बन्ध का हेतु है, फिर भले वह वस्तु कोई भी हो, किसी भी रूप में हो, प्राप्त हो या प्राप्त न भी हो ।
३. एवं चैव संपत्तीय दव्यो वि भावनो वि ।
किसी वस्तु की आसक्ति है, और वह प्राप्त भी है, तो यह परिग्रह का तीसरा भंग है - " द्रव्य से भी परिग्रह और भाव से भी परिग्रह ।" यह भंग स्पष्ट ही सामान्य साधक की बुद्धि में भी परिग्रह है, प्रतः विशेष व्याख्या की अपेक्षा नहीं रखता ।
४. चरम भंगो पुण सुनो
चतुर्थ भंग है-न द्रव्य से परिग्रह और न भाव से ।' यह भंग पूर्वोक्त चतुर्थ भंगों के समान केवल शब्द मात्र है, अर्थ से शून्य है। जीवन में परिग्रह की ऐसी कोई वस्तु
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