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"हिसाए पडिवक्खो, होइ अहिंसा चउठिवहा सा उ । दव भावे अतहा, अहिंसाज्जीवाइ वा उ ति ॥४५॥"
-हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है। और, वह द्रव्य और भाव से चार प्रकार की होती है। अहिंसा और अजीवातिपात, मूलतः एकार्थक हैं।
उपर्युक्त नियुक्ति के द्वारा निरूपित द्रव्य-भाव के चतुर्विधत्व का, महान् श्रुतधर प्राचार्य जिनदास महत्तर और प्राचार्य हरिभद्र ने, उदाहरणों के द्वारा बहुत स्पष्टता से वर्णन किया है। और, यही वर्णन अन्य ग्रन्थों में भी, कहीं विस्तार से, तो कहीं संक्षेप से, उल्लिखित होता रहा है।
श्री जिनदास महत्तर द्वारा रचित दशवकालिक चूणि अभी मेरे समक्ष नहीं है, अतः श्री हरिभद्र सूरीश्वर की दशवकालकीय बृहदवृत्ति से ही हिंसा आदि से सम्बन्धित द्रव्य-भाव की चर्चित चतुर्भगी का बोध-पाठ दिया जा रहा है। बृहदवृत्ति में प्रस्तुत चर्चा का अधिकांश भाग जिनदासीय चूर्णि से ही उधृत है और अपने में यह अच्छा ही है कि इस तरह सहज ही प्रस्तुत प्रतिपाद्य पर दो बहुविश्रुत एवं बहुश्रुत प्राचार्यों की विचार-मुद्रा अंकित हो जाती है।
चणि एवं बृहद वृत्ति का अहिंसा के प्रसंग में भंग-क्रम एक होते हुए भी मेरे लेखन से कुछ भिन्न है। दोनों में द्रव्य और भाव का सह अस्तित्वरूप सम्मिलित भंग 'द्रव्यभाव' पहले दिया गया है, शेष भंग बाद में है। मैंने यहाँ स्पष्ट बोध के लिए सर्वप्रथम द्रव्य, तत्पश्चात भाव और तदनन्तर सह अस्तित्वरूप संयुक्त द्रव्यभाव और अन्त में 'नो द्रव्य नो भाव'यह क्रम दिया है। केवल क्रम में ही सहज रूप से सर्वसाधारण के अर्थबोधार्थ आवश्यक परिवर्तन है, जो सुरुचिशील पाठकों द्वारा क्षन्तव्य है। एतदतिरिक्त शब्द
और भाव ज्यों के त्यों हैं, उनमें मेरी ओर से कुछ नहीं किया गया है। आगे जाकर चतुर्थ अध्ययन में सत्यादि की विवेचना के प्रसंग में प्राचार्य द्वय ने भी चतुर्भंगी का मदुक्त क्रम ही अपनाया है।
हिंसा--अहिंसा से सम्बन्धित चतुर्भगी:
१. 'द्रव्यतो न भावतः।' सा खलु ईर्यादि-समितस्य साधोः कारणे गच्छत इति ।
उक्तं च...
उच्चालियं मि पाए,
इरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी,
मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥१॥ न य तस्स तन्निमित्तो,
____बन्धो सुहमो वि देसिनो समए। जम्हा सो अप्पनत्तो
सा उ पमाओ ति निद्दिवा ॥२॥--प्रोधनियुक्ति, ७४५-४६
'द्रव्य से हिंसा है, किन्तु भाव से नहीं-यह प्रथम भंग है। यथाप्रसंग ईयदि समिति से गमनागमन करते हुए मुनि के द्वारा भी कदाचित् जो हिंसा हो जाती है, वह स्थूल द्रव्यरूप में बाह्य द्रव्य-हिंसा तो है, किन्तु मुनि के अन्तरंग भाव में हिंसा नहीं है, हिंसा की कोई परिणति नहीं है। अतः यह द्रव्य-हिंसा कर्मबन्ध की हेतु नहीं है। इस सम्बन्ध में प्राचार्य भद्रबाहु का एक परंपरागत प्राचीन कथन है --
महाव्रतों का भंग-दर्शन
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