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जिसके द्वारा यथार्थ सत्य रूप ज्ञेय का, आत्मा का परिबोध हो एवं आत्मा का अनुशासन किया जा सके, वह शास्त्र है। शास्त्र शब्द शासधात से बना है. जिसका अर्थ है- -शासन, 'शिक्षण, उद्बोधन ! अत: शास्त्र का अर्थ हुमा-जिस तत्त्वज्ञान के द्वारा प्रात्मा अनुशासित होती है, उबुद्ध होती है, वह तत्त्वज्ञान शास्त्र है। आचार्य जिनभद्र की यह व्याख्या उनकी स्वतन्त्र कल्पना नहीं है, बल्कि इसका आधार जैन आगम है। प्रागम में भगवान् महावीर की वाणी का यह उद्घोष हुआ है कि---"जिसके द्वारा प्रात्मा जागृत होती है, तप, क्षमा एवं अहिंसा की साधना में प्रवृत्त होती है, वह शास्त्र है।"
उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्ययन में चार बातें दुर्लभ बताई गई हैं-"माणुसत्तं सुईसद्धा, संजमम्मि य वीरियंअर्थात् मनुष्यत्व, शास्त्रश्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रमपुरुषार्थ ! आगे चलकर बताया गया है कि श्रुति अर्थात शास्त्र कैसा होता है ? --"जं सोच्चा पडिवज्जति तवं खंतिमहिस -जिसको सुनकर साधक का अन्तर्मन प्रतिबुद्ध होता है, उसमें तप की भावना जागत होती है और फलतः इधर-उधर बिखरी हुई अनियन्त्रित उद्दाम इच्छाओं का निरोध किया जाता है। इच्छा निरोध से संयम की ओर प्रवृत्ति होती है, क्षमा की साधना में गतिशीलता आती है--वह शास्त्र है।।
इस संदर्भ में इतना और बता देना चाहता हूँ कि 'खंति' आदि शब्दों की भावना बहुत व्यापक है----इसे भी समझ लेना चाहिए। क्षमा का अर्थ केवल क्रोध को शान्त करने तक ही सीमित नहीं है, अपितु कषायमात्र का शमन करना भी है। जो क्रोध का शमन करता है, मान का शमन करता है, माया और लोभ की वृत्तियों का शमन करता है, वही सच्चा 'क्षमावान' है। 'क्षमा' का मूल अर्थ 'समर्थ' होना भी है, जो कषायों को विजय करने में सक्षम अर्थात् समर्थ होता है, जो क्रोध, मान आदि की वृत्तियों को विजय कर सके, मन को सदा शांत-उपशांत रख सके--वह 'क्षमावान' कहलाता है।
शास्त्र का लक्ष्य : श्रेयभावना :
शास्त्र की प्रेरकता में तप और क्षमा के साथ अहिंसा शब्द का भी उल्लेख किया गया है। अहिंसा की बात कह कर समग्र प्राणिजगत् के श्रेय एवं कल्याण की भावना का समावेश शास्त्र में कर दिया गया है। भगवान महावीर ने अहिंसा को भगवती' कहा है । महान् श्रुतधर प्राचार्य समन्तभद्र ने अहिंसा को परब्रह्म कहा है। इसका मतलब है--- हिसा एक विराट आध्यात्मिक चेतना है, समग्र प्राणिजगत के शिव एवं कल्याण का प्रतीक है। इसीलिए मैंने 'सत्यं' के साथ 'शिव' की मर्यादा का उल्लेख किया है। अहिंसा हमारे 'शिव' की साधना है। करुणा, कोमलता, सेवा, सहयोग, मैत्री और अभय--ये सब अहिंसा की फलश्रुतियाँ है। इस प्रकार हम शास्त्र की परिभाषा इस प्रकार कर सकते हैं कि तप, क्षमा एवं अहिंसा के द्वारा जीवन को साधने वाला, अन्तरात्मा को परिष्कृत करने वाला जो तत्त्वज्ञान है, वह शास्त्र है।
शास्त्र का प्रयोजन :
शास्त्र की परिभाषा समझ लेने पर इसका प्रयोजन क्या है ? यह भी स्पष्ट हो जाता है। भगवान् शास्त्र का प्रवचन किसलिए करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी आर्य सुधर्मा ने कहा है--'सव्व-जग-जीवरक्षण दयद्वयाए
१. उत्तराध्ययन ३१ २. उत्तराध्ययन ३०० ३. प्रश्नव्याकरण, ११ ४. अहिसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् ।-स्वयंभ स्तोत्र
धर्म की परख का आधार
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