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शिक्षा के रूप में धर्म-भेद तथा अचेलक और सचेलक के रूप में लिंगभेद था, यह इतिहास का एक परम तथ्य है । 3
साधना : एक सरिता :
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जैन-धर्म की साधना विधिवाद और निषेधवाद के एकान्त अतिरेक का परित्याग कर दोनों के मध्य में से होकर बहने वाली सरिता है । सरिता को अपने प्रवाह के लिए दोनों कूलों सम्बन्धातिरेक से बचकर यथावसर एवं यथास्थान दोनों का यथोचित स्पर्श करते हुए मध्य में प्रवहमान रहना आवश्यक है। किसी एक कूल की ओर ही सतत बहती रहने वाली सरिता कभी हुई है, न है, और न कभी होगी। साधना की सरिता का भी यही स्वरूप है । एक
विधिवाद का तट है, तो दूसरी ओर निषेधवाद का । दोनों के मध्य में से बहती है, साधना की मृत सरिता । साधना की सरिता के प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जहाँ दोनों का स्वीकार आवश्यक है, वहाँ दोनों के प्रतिरेक का परिहार भी आवश्यक है । विधिवाद और निषेधवाद की इति से बचकर यथोचित विधि - निषेध का स्पर्शकर समिति रूप में बहने वाली साधना की सरिता ही अन्ततः अपने अजर-अमर अनन्त साध्य में विलीन हो सकती है ।
उत्सर्ग और अपवाद :
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साधना की सीमा में प्रवेश पाते ही साधना के दो अंगों पर ध्यान केन्द्रित हो जाता हैउत्सर्ग तथा अपवाद । ये दोनों अंग साधना के प्राण हैं। इनमें से एक का भी प्रभाव हो जाने पर साधना अधूरी है, विकृत है, एकांगी है, अकान्त है। जीवन में एकान्त कभी कल्याणकर नहीं हो सकता । क्योंकि वीतराग-देव के प्रक्षुण्ण पथ में एकान्त मिथ्या है, अहित है अशुभंकरहै । मनुष्य द्विपद प्राणी है, अतः वह अपनी यात्रा दोनों पदों से ही भली-भाँति कर सकता है । एक पद का मनुष्य लंगड़ा होता है । ठीक, साधना भी अपने दो पदों से ही सम्यक् प्रकार से गति कर सकती है । उत्सर्ग और अपवाद साधना के दो चरण हैं । इनमें से एक चरण का भी प्रभाव, यह सूचित करेगा कि साधना पूरी नहीं, अधूरी है। साधक के जीवन - विकास के लिए उत्सर्ग और अपवाद प्रावश्यक ही नहीं, अपितु अपरिहार्य भी है। साधक की साधना के महापथ पर जीवन रथ को गतिशील एवं विकासोन्मुख रखने के लिए -- उत्सर्ग और अपवाद-रूप दोनों चक्र सशक्त तथा सक्रिय रहने चाहएँ— तभी साधक अपनी साधना द्वारा अपने अभीष्ट साध्य की सिद्धि कर सकता है।
उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा :
उत्सर्ग और अपवाद की चर्चा बहुत गंभीर एवं विस्तृत है । अतः सर्वप्रथम लंबी चर्चा में न जाकर हम प्राचीन प्राचार्यों की धारणा के अनुसार संक्षेप में उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा पर विचार कर लेना चाहते हैं ।
आचार्य संघदास, 'उत्' उपसर्ग का अर्थ 'उद्यत' करते हैं और 'सर्व' का 'विहार' । अस्तु जो उद्यत विहार चर्या है, वह उत्सर्ग है । उत्सर्ग का प्रतिपक्ष अपवाद है । क्योंकि अपवाद, दुभिक्षादि में उत्सर्ग से प्रच्युत हुए साधक को ज्ञानादि - प्रबलम्बनपूर्वक धारण करता है । अर्थात् उत्सर्ग में रहते हुए साधक यदि ज्ञानादि गुणों का संरक्षण नहीं कर पाता है, तो अपवाद सेवन के द्वारा उनका संरक्षण कर सकता है ।"
३. उत्तराध्ययन, २३वा श्रध्ययन, गाथा २५ से ३२, केशीगौतम संवाद ।
४. उज्जयस्सग्गस्सग्गो, प्रववाओ तस्स चेव पडिवक्खो ।
उस्सग्गा विनिवतिय धरेइ सालबमववाओ ।।३१६।। —बृहत्कल्पभाष्य पीठिका उद्यतः सर्गः --- बिहार उत्सर्गः । तस्य च उत्सर्गस्य प्रतिपक्षोऽपवादः । कथम् ? इति चेद् अताह-उत्सर्गद् अध्वाऽवमौदर्यादिषु 'विनिपतितं' प्रच्युत ज्ञानादिसालम्बमपवादो धारयति ।।३१६ ।।
-- प्राचार्य मलमगिरि
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पन्ना समिक्ख धम्मं
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