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व्यक्तियों के लिए रुग्णता या स्वस्थता आदि के कारण स्थिति अनुकूल या प्रतिकूल हो सकती है। यही बात व्यक्ति के लिए उपयुक्त द्रव्य की भी है। क्या मोटा ऊनी कंबल साधारणतया जेष्ठ मास में अनुपयुक्त होने पर भी, उसी समय में, ज्वर (पित्ती उछलने पर) की स्थिति में उपयक्त नहीं हो जाता है? किंबहना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अनकलता तथा प्रतिकूलता के कारण विभिन्न स्थितियों में विभिन्न परिवर्तन होते रहते हैं। उन सब स्थितियों का ज्ञान गीतार्थ के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार चतुर व्यापारी आय और व्यय की भली भाँति समीक्षा कर के व्यापार करता है, और अल्प व्यय से अधिक लाभ उठाता है, उसी प्रकार गीतार्थ भी अल्प दोष-सेवन से यदि ज्ञानादि गुणों का अधिक लाभ होता हो, तो वह उस कार्य को कर लेता है, और दूसरों को भी इसके लिए देशकालानुसार उचित निर्देशन कर सकता है।
गीतार्थ के लिए एक और महत्त्वपूर्ण बात है-यतना की। उत्सर्ग में तो यतना अपेक्षित है ही, किन्तु अपवाद में भी यतना की बहुत अधिक अपेक्षा है। अपवाद में जब कभी चालू परम्परा से भिन्न यदि किसी प्रकल्प्य विशेष के सेवन का प्रसंग पा जाए, तो वह यों ही विवेक मूढ़ होकर अंधे हाथी के समान नहीं होना चाहिए। अपवाद में विवेक की आँखें खुली रहनी आवश्यक हैं। उत्सर्ग की अपेक्षा भी अपवाद-काल में अधिक सजगता चाहिए। यदि यतना का भाव रहता है, तो अपवाद में स्खलना की आशंका नहीं रहती है। यतना के होते हुए उल्लुण्ठ वृत्ति कथमपि नहीं हो सकती।" यतना अपने आप में वह अमृत है, जो दोष में भी गुण का प्राधान कर देता है। अकल्प्य सेवन में भी यदि यतना है, यतना का भाव है, तो इसका अर्थ है कि अकल्प्य-सेवन में भी संयम है। आखिर यतना और है क्या, संयम का ही तो दूसरा व्यवहारसिद्धरूप यतना है। अतः सच्चा गीतार्थ वह है, जो उत्सर्ग और अपवाद में सर्वत्र यतना का ध्यान रखता है। उसका दोष-वर्जन भी यतना के साथ होता है, और दोषसेवन भी यतना के साथ । जीवन में सब ओर यतना का प्रकाश साधक को पथ-भ्रष्ट होने से पूर्णतः बचाए रखता है।
प्राचार्य भद्रबाहु और संघदास गणी ने गीतार्थ के गुणों का निरूपण करते हुए कहा है--"जो आय-व्यय, कारण-अकारण, आगाढ (ग्लान)-अनागाढ, वस्तु-अवस्तु, युक्तअयुक्त, समर्थ-असमर्थ, यतना-प्रयतना का सम्यक्-ज्ञान रखता है, और साथ ही कर्तव्य-कर्म का फल-परिणाम भी जानता है, वह विधिवेत्ता-गीतार्थ कहलाता है ।"२१ ।
अपवाद के सम्बन्ध में निर्णय देने का, स्वयं अपवाद सेवन करने और दूसरों से यथापरिस्थिति अपवाद सेवन कराने का समस्त उत्तरदायित्व गीतार्थ पर रहता है। अगीतार्थ को स्वयं अपवाद के निर्णय का सहज अधिकार नहीं है। वह गीतार्थ के निरीक्षण तथा निर्देशन में ही यथावसर अपवाद मार्ग का अवलम्बन कर सकता है।
प्रस्तुत चर्चा में गीतार्थ को इतना अधिक महत्त्व क्यों दिया जाता है ? इसका एकमात्र समाधान यह है कि कर्तव्य की चारुता और अचारुता, अथवा सिद्धि और असिद्धि, अन्ततः कर्ता पर ही आधार रखती है। यदि कर्ता अज्ञ है, कार्य-विधि से अनभिज्ञ है, तो देश, काल और साधन की हीनता के कारण अन्ततः कार्य की हानि ही होगी, सिद्धि नहीं। और १६. सुंकादी-परिसुद्धे, सइ लाभे कुणइ वाणिओ चिट्ठ।
एमेव य गीयत्यो, प्रायं दह्र समायरइ ।। ५२॥-बृहत्कल्पकभाष्य, ९५२ वमेव च गीतार्थोऽपि ज्ञानादिकं 'पाय' लाभं दृष्ट्वा प्रलम्बाद्यकल्प्यप्रतिसेवां समाचरति, मान्यथा ।
-बृहत्कःपभाष्य वृत्ति, २०. जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालिणी चेव ।
तब्बुडिकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥७६६।। जयणाए वद्रमाणो जीवो, सम्मत्त-णाण-चरणाण।
सद्धा-बोहाऽऽसेवणभावेणाराहओ भणि ओ॥७७०।-उपदेशपद २१. प्रायं कारण गाद, वत्यं जत्तं ससत्ति जयणं च।
सव्वं च सपडिवक्वं, फलं च विधिवं वियाणाइ ॥९५१॥ --बृहत्कल्प नियुक्ति, भाष्य,
उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग
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