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पूरा कर लेता है और लक्ष्य पर पहुँच जाता है । अतः व्यवहार की भाषा में भले ही विश्रान्ति. कालीन स्थिति अगति हो, किन्तु निश्चय की भाषा में तो वह स्थिति भी गति ही है।
साधक सहज भाव से शास्त्रनिर्दिष्ट उत्सर्ग मार्ग पर चलता है, और यावद बृद्धि बलोदयं उत्सर्ग मार्ग पर चलना भी चाहिए। परन्तु, कारणवशात् यदि कभी उसे उत्सर्ग मार्ग से अपवाद मार्ग पर आना पड़े, तो यह उसका तात्कालिक विश्राम होगा। यह विश्राम इसलिए लिया जाता है कि साधक अपने स्वीकृत पथ पर द्विगुणित वेग के साथ सोल्लास आगे बढ़ सके और अभीष्ट लक्ष्य पर ठीक समय पर पहुँच सके।
फलितार्थ यह है कि अपवाद उत्सर्ग की रक्षा के लिए ही होता है, न कि ध्वंस के लिए। अपवाद काल में, यदि बाह्य दृष्टि से स्वीकृत व्रतों को यत्किचित् क्षति पहुँचती भी है, तो वह मूलतः व्रतों की रक्षा के लिए ही होती है। जहरीले फोड़े से शरीर की रक्षा के लिए, अाखिर शरीर के उस भाग का छेदन किया जाता ही है न ? किन्तु, वह शरीर-छेदन शरीर की रक्षा के लिए ही है, नाश के लिए नहीं।
जीवन और मरण में सब मिलाकर अन्ततः जीवन ही महत्त्वपूर्ण है । 'जीवन्नरो भद्रशतानि पश्येत्' का स्वर्ण सूत्र आखिर एक सीमा में कुछ अर्थ रखता है। कल्पना कीजिए-- साधक के समक्ष ऐसी समस्या उपस्थित है कि वह अपने व्रत पर अड़ा रहता है, तो जीवन जाता है और यदि जीवन की रक्षा करना चाहता है , तो गत्यन्तराभाव से स्वीकृत व्रतों का भंग होता है। ऐसी स्थिति में साधक क्या करे, और क्या न करे ? क्या वह मर जाए ? शास्त्रकार इस सम्बन्ध में कहते हैं कि यदि अपने धर्म की रक्षा के लिए कोई महत्त्वपूर्ण स्थिति हो, साधक में उत्साह हो, तरंग हो, तो वह प्रसन्न भाव से मृत्यु का आलिंगन कर सकता है। परन्तु यदि ऐसी कोई महत्त्वपूर्ण स्थिति न हो, मत्य की ओर जाने में समाधिभाव का भंग होता हो, जीवन के बचाव में कहीं अधिक धर्माराधन संभवित हो, तो साधक के लिए जीते रहना ही श्रेयस्कर है, भले ही जीवन के लिए स्वीकृत व्रतों में थोड़ा-बहुत फेर-फार भी क्यों न करना पड़े। यह केवल मेरी अपनी मति-कल्पना नहीं है। जैन जगत् के महान् श्रुतधर प्राचार्य भद्रबाहु अोधनियुक्ति में कहते हैं कि "साधक को सर्वत्र सब प्रकार से अपने संयम की रक्षा करनी चाहिए। यदि कभी संयम का पालन करते हुए मरण होता हो, तो संयम-रक्षा को छोड़ कर अपने जीवन की रक्षा करनी चाहिए। प्राणान्त काल में अपवाद-सेवन द्वारा जीवन की रक्षा करने वाला मुनि दोषों से रहित होता है, वह पुनः विशुद्धि प्राप्त कर सकता है। तत्त्वतः तो उसका व्रत-भंग होता ही नहीं है।
व्रत-भंग क्यों नहीं होता, प्रत्यक्ष में जब कि व्रत-भंग है ही? उक्त शंका का समाधान द्रोणाचार्य अपनी टीका में करते हैं कि-"अपवाद-सेवन करने वाले साधक के परिणाम विशद्ध है। और विशुद्ध परिणाम मोक्ष का हेतु ही होता है, संसार का हेतु नहीं।"*
जैन-धर्म के सम्बन्ध में कुछ लोगों कि धारणा है कि वह जीवन से इकरार नहीं करता, अपितु इन्कार करता है। परन्तु, यदि तटस्थ दृष्टि से गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए, तो मालूम पड़ेगा कि वस्तुतः जैन-धर्म ऐसा नहीं है। वह जीवन से इन्कार नहीं करता, अपितु जीवन के मोह से इन्कार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्त्वपूर्ण लाभ है, और वह स्व-पर की हित-साधना में उपयोगी है, तो जीवन सर्वतोभावेन संरक्षणीय है । आचार्य भद्रबाहु, अपने उक्त सिद्धान्त के सम्बन्ध में, देखिए, कितना तर्कपूर्ण समाधान करते हैं२३. धावंतो उचाओ, मागा कि न गच्छाइ कमेणं । किंवा मउई किरिया, न कीरये असहओ तिखं ॥३२०॥
--बृहत्कल्पभाष्य पीठिका २४. सव्वत्थ संजमं, संजमाओ अप्पाणमेव रखिज्जा
मुच्चइ अइवायाओ, पुणो विसोही न याऽविरई ॥४६।--ओधनियुक्ति * याऽविरई, किं कारणं? तस्याशयशुद्धतया, विशुद्धपरिणामस्य च मोम हेतुत्वात् ।
-ओधनियुक्ति टीका, गा० ४६
उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग
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