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दोनों एकार्थ-साधक होते हैं, अर्थात् दोनों का लक्ष्य एक होता है, दोनों एक-दूसरे के पूरक होते हैं, साधक होते हैं, बाधक और घातक नहीं। दोनों के सुमेल से ही, एकार्थ-साधकत्व से ही, साधक का साधना-पथ प्रशस्त हो सकता है।६ उत्सर्ग और अपवाद यदि परस्पर निरपेक्ष हों, अन्यार्थक हों, एक ही प्रयोजन को सिद्ध न करते हों, तो वे शास्त्र-भाषा के अनुसार उत्सर्ग और अपवाद ही नहीं हो सकते। शास्त्रकार ने दोनों को मार्ग कहा है। और, मार्ग वेही होते हैं, जो एक ही निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर जाते हों, भले ही धूम-फिर कर जाएँ। जो विभिन्न लक्ष्यों की ओर जाते हों, वे एक लक्ष्य पर पहुँचने की भावना रखने वाले यात्रियों के लिए मार्ग न होकर, कुमार्ग ही होते हैं। साधना के क्षेत्र में उत्सर्ग भी मार्ग है, और अपवाद भी मार्ग है, दोनों ही साधक को मुक्ति की ओर ले जाते हैं, दोनों ही संयम की रक्षा के लिए होते हैं।
एक ही रोग में एक व्यक्ति के लिए वैद्य किसी एक खाद्य वस्तु को अपथ्य कह कर निषेध करता है, तो दूसरे व्यक्ति के लिए देश, काल और प्रकृति आदि की विशेष स्थिति के कारण उसी निषिद्ध वस्तु का विधान भी करता है। परन्तु, इस विधि और निषेध का लक्ष्य एक ही है---रोग का उपशमन, रोग का उन्मूलन । इस सम्बन्ध में शास्त्रीय उदाहरण के लिए प्रायवेदोक्त विधान है कि “सामान्यतः ज्वर रोग में लंघन (भोजन का परित्याग) हितावह एवं स्वास्थ्य के अनुकूल रहता है, परन्तु वात, श्रम, क्रोध, शोक और कामादि से उत्पन्न ज्वर में लंघन से हानि ही होती है ।"१७ इस प्रकार एक स्थान पर भोजन का त्याग अमृत है, तो दूसरे स्थान पर भोजन का प्रत्याग अमृत है। दोनों का लक्ष्य एक ही है, भिन्न नहीं।
उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में भी यही बात है। दोनों का लक्ष्य एक ही हैजीवन की संशुद्धि, आध्यात्मिक पवित्रता, संयम की रक्षा, ज्ञानादि सद्गुणों की वृद्धि । उत्सर्ग अपवाद का पोषक होता है और अपवाद उत्सर्ग का। उत्सर्ग मार्ग पर चलना, यह जीवन की सामान्य पद्धति है, जैसे कि सीधे राजमार्ग पर चलने वाला यात्री कभी प्रतिरोध-विश के कारण राजमार्ग का परित्याग कर समीप की पगडंडी भी पकड़ लेता है, परन्तु कुछ दूर चलने के बाद अनकलता होते ही पुनः उसी राजमार्ग पर लौट पाता है। यही बात उत्सर्ग से अपवाद और अपवाद से उत्सर्ग के सम्बन्ध में लागू पड़ती है। दोनों का लक्ष्य गति है, अगति नहीं। फलतः दोनों ही मार्ग है, अमार्ग या कुमार्ग नहीं। दोनों के यथोक्त सुमेल से ही साधक की साधना शुद्ध एवं परिपुष्ट होती है। उत्सर्ग और अपवाद कब और कब तक?
प्रश्न किया जा सकता है कि साधक कब उत्सर्ग मार्ग से गमन करे और कब अपवाद मार्ग से ? प्रश्न वस्तुतः बड़े ही महत्त्व का है। उक्त प्रश्न पर पहले भी यथाप्रसंग कुछ-नकुछ लिखा गया ही है, किन्तु वह संक्षेप भाषा में है। संभव है, साधारण पाठक उस पर से कोई स्पष्ट धारणा न बना सके । अतः हम यहाँ कुछ विस्तृत चर्चा कर लेना चाहते हैं।
उत्सर्ग साधना-पथ की सामान्य विधि है, अतः उस पर साधक को सतत चलना है। उत्सर्ग छोड़ा जा सकता है, किन्तु वह यों ही अकारण नहीं, बिना किसी विशेष परिस्थिति के नहीं। और, वह भी सदा के लिए नहीं। जो साधक अकारण ही उत्सर्ग मार्ग का परित्याग कर देता है, अथवा किसी अपुष्ट (नगण्य) कारण की प्राड में उसे छोड़ देता है, वह साधक १६. नोत्सष्टमन्यार्थमपोद्यते च।।
-प्रन्ययोगव्यवच्छेदिका, ११वीं कारिका यमर्थमेवाश्रित्य शास्त्रेषत्सर्गः प्रवर्तते, तमेवार्थमाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्तते, तयोनिम्नोन्नतादिव्यवहारवत् परस्परसापेक्षत्वेन एकार्थसाधनविषयत्वात् ।
-स्याहादमञ्जरी, कारिका ११ १७. कालाविरोधिनिदिन्ट, ज्वरादी लङ्गनं हितम् ।
__ ऋतेऽनिल-श्रम-क्रोध-शोक-कामकृतज्वरात् ।।--स्यावादमञ्जरी (उद्धृत) का० ११ २३२
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