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हैं ? इन वर्णनों से हमें तप, त्याग, क्षमा, अहिंसा आदि का कौन-सा उपदेश प्राप्त होता है ? जिनका हमारी आध्यात्मिक चेतना से कोई सम्बन्ध नहीं, आत्म-साधना से जिनका कोई वास्ता ही नहीं, हम उन्हें शास्त्र माने तो क्यों? किस आधार पर?
मैंने प्रारम्भ में एक बात कही थी कि जैन एवं वैदिक-परम्परा के अनेक ग्रन्थों का निर्माण या नवीन संस्करण ईसा पूर्व की पहली शताब्दी से लेकर ईसा पश्चात् चौथी-पाँचवी शताब्दी तक होता रहा है। उस युग में जो भी प्राकृत या संस्कृत में लिखा गया, उसे धर्मशास्त्र की सूची में चढ़ा दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि मानव की स्वतन्त्र तर्कणा एक तरह से कुण्ठित हो गई और श्रद्धावनत होकर मानव ने हर किसी ग्रन्थ को शास्त्र एवं प्राप्त-वचन मान लिया। भारत की कोई भी परंपरा इस बौद्धिक विकृति से मुक्त नहीं रह सकी। श्रद्धाधिक्य के कारण, हो सकता है, प्रारम्भ में यह भूल कोई भूल प्रतीत न हुई हो, पर आज इस भूल के भयंकर परिणाम हमारे समक्ष आ रहे हैं। भारत की धार्मिक प्रजा उन तथाकथित धर्म-शास्त्रों की जकड़ में इस प्रकार प्रतिबद्ध हो गई है कि न कुछ पकड़ते बनता है और न कुछ छोड़ते बनता है।
मेरा यह कथन शास्त्र की अवहेलना या अपभ्राजना नहीं है, किन्तु एक सत्य हकीकत है, जिसे जानकर, समझ कर हम शास्त्र के नाम पर अन्धी शास्त्र प्रतिबद्धता से मुक्त हो जाएँ। जैसा मैंने कहा-शास्त्र तो सत्य का उद्घाटक होता है। असत्य धारणाओं का संकलन, शास्त्र नहीं होता। मैं तत्त्वद्रष्टा ऋषियों की वाणी को पवित्र मानता हूँ, महाश्रमण महावीर की वाणी को प्रात्म-स्पर्शी मानता हूँ-इसलिए कि वह सत्य है, ध्रुव है। किन्तु उनके नाम पर रचे गये ग्रन्थों को, जिनमें कि अध्यात्म चेतना का कुछ भी स्पर्श नहीं है, सत्यं, शिवं की कुछ भी अनुभूति नहीं है, मैं उन्हें शास्त्र नहीं मानता।
कुछ मित्र मुझे अर्ध-नास्तिक कहते हैं, मिथ्यात्वी भी कहते हैं । मैं कहता हूँ, अर्ध-नास्तिक का क्या मतलब ? पूरा ही नास्तिक क्यों न कह देते ? यदि सत्य का उद्घाटन करना, उसे मुक्त मन से स्वीकार कर लेना, नास्तिकता है, तो वह नास्तिकता अभिशाप नहीं, वरदान है।
मेरा मन महावीर के प्रति अटूट श्रद्धा लिए हुए है, सत्यद्रष्टा ऋषियों के प्रति एक पवित्र भावना लिए हुए है, और यह श्रद्धा ज्यों-ज्यों चितन की गहराई का स्पर्श करती है, त्योंत्यों अधिकाधिक प्रबल, तथा दृढ़ होती जाती है। मैं आज भी उस परम ज्योति को अपने अन्तरंग में देख रहा हूँ और उस पर मेरा मन सर्वतोभावेन समर्पित हो रहा है। भगवान् मेरे लिए ज्योति-स्तम्भ हैं, उनकी वाणी का प्रकाश मेरे जीवन के कण-कण में समाता जा रहा है, किन्तु भगवान् की वाणी क्या है, और क्या नहीं, यह मैं अपने अन्तविवेक के प्रकाश में स्पष्ट देखकर चल रहा हूँ। भगवान् की वाणी वह है, जो अन्तर में सत्य श्रद्धा की ज्योति जगाती है, अन्तर् में सुप्त ईश्वरत्व को प्रबुद्ध करती है, हमारी अन्तश्चेतना को व्यापक एवं विराट बनाती है। भगवद्वाणी की स्फुरणा प्रात्मा की गति-प्रगति से सम्बन्धित है, सूर्य, चन्द्र आदि की गति से नहीं। सोने, चांदी के पहाड़ों की ऊँचाई-नीचाई से नहीं, नदी-नालों एवं समुद्रों की गहराई-लम्बाई से नहीं। ऋषियों की वाणी विश्वमैत्री एवं विराट् चेतना की प्रतिनिधि है, उसमें वर्गसंघर्ष, जातिविद्वेष एवं असत् कल्पनाओं के स्वर नहीं हो सकते। भगवान् की वाणी में जो शाश्वत सत्य का स्वर मुखरित हो रहा है, उसको कोई भी विज्ञान, कोई भी प्रयोग चुनौती नहीं दे सकता, कोई भी सत्य का शोधक उसकी अवहेलना नहीं कर सकता। किन्तु हम इस अज्ञान में भी न रहें कि भगवान् की वाणी के नाम पर, आप्त-वचनों के नाम पर, आज जो कुछ भी लिखा हुआ प्राप्त होता है, वह सब कुछ साक्षात् भगवान् की वाणी है, जो कुछ लिपिवद्ध है वह अक्षर-अक्षर भगवान् का ही कहा हुआ है। प्राकृत एवं अर्धमागधी के हर किसी ग्रन्थ पर महावीर की मुद्रा लगा देना, महावीर की भक्ति नहीं, अवहेलना है। यदि हम सच्चे श्रद्धालु है, भगवद्भक्त हैं, तो हमें इस अवहेलना से मुक्त होना चाहिए।
और यह विवेक कर लेना चाहिए कि जो विचार, जो तथ्य, जो वाणी सिर्फ भौतिक जगत् के विश्लेषण एवं विवेचन से संबंधित है, साथ ही प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित भी है, वह भगवान्
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