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या साहस नहीं है ? अथवा वे अपनी श्रद्धा-प्रतिष्ठा के भय से भगवद्वाणी का यह उपहास देखते हुए भी मौन है? मैं साहस के साथ कह देना चाहता हूँ कि आज वह निर्णायक घडी प्रा पहँची है कि 'हाँ' या 'ना' में स्पष्ट निर्णय करना होगा। पौराणिक प्रतिबद्धता एवं शाब्दिक व्यामोह को तोड़ना होगा, और तर्क की कसौटी पर परख कर यह निर्णय करना ही होगा कि भगवद्वाणी क्या है ? और, उसके बाद का अंश क्या है ?
विचार-प्रतिबद्धता को तोड़िए:
किसी भी परम्परा के पास ग्रन्थ या शास्त्र कम-अधिक होने से जीवन के आध्यात्मिक विकास में कोई अन्तर आने वाला नहीं है। यदि शास्त्र कम रह गए, तो भी आपका प्राध्यात्मिक जीवन बहुत उँचा हो सकता है, विकसित हो सकता है, और शास्त्र का अम्बार लगा देने पर भी आप बहुत पिछड़े हुए रह सकते हैं। प्राध्यात्मिक विकास के लिए जिस चिंतन और दृष्टि की आवश्यकता है, वह तो अन्तर से जागृत होती है। जिसकी दृष्टि सत्य के प्रति जितनी अाग्रह रहित एवं उन्मुक्त होगी, जिसका चिंतन जितना प्रात्ममुखीन होगा, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास कर सकेगा।
मैंने देखा है, अनुभव किया है-ग्रन्थों एवं शास्त्रों को लेकर हमारे मानस में एक प्रकार की वासना, एक प्रकार का प्राग्रह, जिसे हठाग्रह ही कहना चाहिए. पैदा हो गया है। आचार्य शंकर ने विवेक चूड़ामणि में कहा है--देह वासना एवं लोकवासना के समान शास्त्रवासना भी यथार्थ ज्ञान की प्रतिबन्धक है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे "दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेये सतामपि",--कहकर दृष्टिरागी के लिए सत्य की अनुसंधित्सा को बहुत दुर्लभ बताया है।
हम अनेकान्त दृष्टि और स्यादवाद विचार पद्धति की बात-बात पर जो दुहाई देते है, वह आज के राजनीतिकों की तरह केवल नारा नहीं होना चाहिए, हमारी दष्टि सत्य-दष्टि बननी चाहिए, ताकि हम स्वतंत्र अप्रतिबद्ध प्रज्ञा से कुछ सोच सकें। जब तक दृष्टि पर से अंधश्रद्धा का चश्मा नहीं उतरेगा, जब तक पूर्वाग्रहों के खटे से हमारा मानस बंधा रहेगा. तब तक हम कोई भी सही निर्णय नहीं कर सकेंगे। इसलिए युग की वर्तमान परिस्थितियों का तकाजा है कि हम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर नये सिरे से सोचें! प्रज्ञा की कसौटी हमारे पास है, और यह कसौटी भगवान् महावीर एवं गणधर गौतम ने, जो स्वयं सत्य के साक्षात्द्रष्टा एवं उपासक थे, बतलाई है—“पन्ना समिक्खए धम्म" ?' प्रज्ञा ही धर्म की, सत्य की समीक्षा कर सकती है, उसी से तत्त्व का निर्णय किया जा सकता है।
शास्त्र-स्वर्ण की परख :
प्रज्ञा एक कसौटी है, जिस पर शास्त्र रूप स्वर्ण की परख की जा सकती है। और, वह परख होनी ही चाहिए। हममें से बहुत से साथी है, जो कतराते हैं कि कहीं परीक्षा करने से हमारा सोना पीतल सिद्ध न हो जाए ! मैं यह कहना चाहता हूँ कि इसमें कतराने की कौन-सी बात है ? यदि सोना वस्तुतः सोना है, तो वह सोना ही रहेगा, और यदि पीतल है, तो उस पर सोने का भ्रम आप कब तक पालते रहेंगे? सोने और पीतल को अलग-अलग होने दीजिए---इसी में आप की प्रज्ञा की कसौटी का चमत्कार है।
जनागमों के महान् टीकाकार आचार्य अभयदेव ने भगवती की टीका की पीठिका में एक बहत बडी बात कही है, जो हमारे लिए संपर्ण भगवद-वाणी की कसौटी हो सकती है।
प्रश्न है कि प्राप्त कौन है ? और उनकी वाणी क्या है ? प्राप्त भगवान् क्या उपदेश करते हैं?
उत्तर में कहा गया है--जो मोक्ष का अंग है, मुक्ति का साधन है, प्राप्त भगवान्
१. उत्तराध्ययन, २३।२५
धर्म की परख का आधार
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