________________
धर्म है, धर्म के प्रति अन्तर् में वास्तविक आनन्द और उल्लास है, तो भगवान् स्वयं तुम्हारे
पास आएगा ।
"मन ऐसा निर्मल भया, जैसा गंगा-नीर । पीछे-पीछे हरि फिरत, कहत कबीर-कबीर ॥”
यह साधक की मस्ती का गीत है । जब मन का दर्पण निर्मल हो गया, उसमें भगवत्स्वरूप प्रतिबिम्बित होने लगा, तो साधक को कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है । साधना के दृढ़ आसन पर बैठने वाले के समक्ष संसार का समग्र वैभव, ऐश्वर्य और शासन केन्द्रित हो जाता है और तब वह अपना भगवान्, अपना स्वामी खुद हो जाता है । उसे फिर दूसरों की कोई अपेक्षा नहीं रहती ।
अपना नाथ :
भगवान् महावीर के समय में अनाथ नाम से प्रसिद्ध एक मुनि हो गए हैं। वे अपने घर में विपुल वैभव और ऐश्वर्य सम्पन्न व्यक्ति थे। हर किसी को चमत्कृत कर देनेवाला विशाल वैभव, माता-पिता का अपार स्नेह, पत्नी का अनन्य प्रेम - इन सबको ठुकराकर उन्होंने साधना का मार्ग स्वीकार किया और राजगृह के शैल - शिखरों की छाया में, सुरम्य सघन वनप्रदेश में जाकर सजीव चट्टान की तरह साधना में स्थिर हो गए। एक दिन मगध सम्राट श्रेणिक ने देखा, तो उसके रूप एवं यौवन के सौन्दर्य पर सहसा मुग्ध हो गया । श्रेणिक के मन में विचार आया कि यह युवक भोग के काल में योग के, त्याग के मार्ग पर कैसे आ गया ? उसने युवक मुनि से साधु बनने का कारण पूछा, तो नम्र भाव से उत्तर दिया, "राजन् ! मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई सहारा नहीं था । इसलिए मुनि
बन गया ।"
श्रेणिक ने मुनि के उत्तर को अपने भोग-प्रधान दृष्टिकोण से नापा कि युवक गरीब होगा, अतएव प्रभावों और कष्टों से प्रताड़ित होकर गृहस्थ जीवन से भाग आया है । राजा के मन में एक सिहरन हुई कि न जाने इस प्रकार कितने होनहार युवक प्रभावों से ग्रस्त होकर साधु बन जाते हैं और ये उभरती तरुणाइयाँ, जिनके जीवन का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है, यों ही बर्बाद हो जाती हैं। श्रेणिक इन विचारों की उधेड़-बुन में कुछ देर खोया-खोया-सा रहा, फिर युवक मुनि की आँखों में झांकता हुआ बोला -- “यदि
अनाथ हो और तुम्हारा कोई सहरा नहीं है, तो मैं तुम्हारा नाथ बनने को प्रस्तुत ।" इस पर उस युवक साधक ने, जिसको साधना के अनन्त अमृत सागर की कुछ बूंदों का रसास्वाद प्राप्त हो चुका था, बड़े प्रोजस्वी और निर्भय शब्दों कहा - "राजन् ! तुम तो स्वयं अनाथ हो, फिर मेरा नाथ बनने की बात कैसे करते हो ? जो स्वयं अनाथ हो, भला वह दूसरों के जीवन का नाथ किस प्रकार हो सकता है ?'
युवक साधक ने यह बहुत बड़ी बात कही थी। यह बात केवल जिह्वा से नहीं, for अन्तरहृदय से कही गई थी। उत्तर के शब्द अन्तर से उठकर आए थे, तभी वे इतने वजनदार और इतने सच्चे थे । राजा श्रेणिक के ज्ञानचक्षु पर फिर भी पर्दा पड़ा रहा । उसने सोचा, शायद युवक को मेरे ऐश्वर्य और वैभव का पता नहीं है, अतः थोड़ा आत्म परिचय दे देना चाहिए। राजा ने कहा- "मुझे जानते हो, मैं कौन हूँ? मैं कोई साधारण व्यक्ति नहीं हूँ । मगध का सम्राट् हूँ। मेरा विशाल वैभव एवं अपार ऐश्वर्य मगध के कण-कण में बोल रहा है।" इसके उत्तर में युवक मुनि ने कहा - "तुम मेरे भाव को अपनी भाषा में समझे, किन्तु मेरी भाषा में नहीं समझे । शब्दों के चक्कर में उलझ कर उनकी आत्मा से बहुत दूर चले गए। तुम तो मगध के ही सम्राट् हो । अतः तुम तो क्या, धरती के चक्रवर्ती और स्वर्ग के इन्द्र भी अनाथ हैं। वे भी विषय-वासना, भोग
२००
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
पन्ना समिक्ख धम्मं
www.jainelibrary.org.