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लेकर चलने वाले के लिए मृत्यु सिर्फ एक विश्राम है। एक पटाक्षेप है। वह जहाँ भी है, चलता रहता है, नया जन्म धारण करेगा, तो वहाँ भी उसकी यात्रा रुकेगी नहीं, मार्ग बदलेगा नहीं, वह फिर अगली मंजिल तय करने को साहस के साथ चल पड़ेगा।
भगवान महावीर ने कहा है-साधक! तुम अपनी यात्रा के महापथ पर चलतेचलते रुक जाते हो, तो कोई भय नहीं, पैर लड़खड़ा जाते हैं. तो घबराने की कोई बात नहीं। संकल्प से डिमो मत, वापस लौटो मत ! यदि कहीं कुछ क्षण रुक गए, बैठ गए, तो क्या है? कुछ देर विश्राम किया, फिर उठो, फिर चलो। चलते रहो ! निरन्तर चलते रहो!
बालक चलता है, लड़खड़ाकर गिर भी जाता है, उठता है और फिर गिरता है। पर, उसकी चिन्ता नहीं की जाती। चरण सध जाएँग तो एक दिन वहीं विश्व की दौड़ में सर्वश्रेष्ठ होकर आगे आ जाएगा। मतलब यह है कि जो चलता है, वह एक दिन मंजिल पर अवश्य पहुँचता है, किन्तु जो मार्ग में थक कर लमलट हो जाता है, चारों-खाने-चित हो जाता है, वह कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता! साधक को संकल्प की लौ जलाकर चलते रहना है, बढ़ते रहना है। फिर उसकी यात्रा अधूरी नहीं रहेगी, उसका संकल्प असफल नहीं रहेगा।
एक विचारक ने कहा है कि- यदि तुम्हारी यह शिकायत है कि इच्छा पूरी नहीं हुई, तो इसका मतलब है कि तुम्हारी इच्छा पूरी थी ही नहीं, अधूरी इच्छा लेकर ही तुम चल पड़े थे। पूरी इच्छा एक दिन अवश्य पूरी होती है। वह भीतर से अपने आप बल जागृत करती हुई पूर्णता की ओर बढ़ी जाती है। पूरी इच्छा में स्वतः ही बल जागृत हो जाता है ।
सच्ची निष्ठा :
अाज के साधक-जीवन की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह चलता तो है, पर उसके चरणों में श्रद्धा और निष्ठा का बल नहीं होता। चलने की सच्ची भूख उसमें नहीं जग पाती। कर्म करता जाता है, किन्तु सच्ची निष्ठा उसके अन्दर जागृत नहीं होती। ऐसे चलता है, जैसे घसीटा जा रहा हो, संशय, भय, अविश्वास के पद-पद पर लड़खड़ाता-सा। ऐसा लगता है कि कोई जीर्ण-शीर्ण दीवार है, अभी एक धक्के से गिर पड़ेगी, कोई सूखा कंकाल वृक्ष है, जो हवा के किसी एक झोंके से भमिसात हो जाएगा। किंतू जिसके अंदर सच्ची निष्ठा का बल है, वह महापराक्रमी वीर की भाँति सदा सीना ताने, आगे ही आगे बढ़ता जाता है। और, मंजिल एक दिन उसके पाँव चूमती है।
संशय : जीवन का खतरनाक बिन्दु :
तैत्तिरीय ब्राह्मण का स्वाध्याय करते समय एक सूक्त दृष्टिगोचर हुआ "श्रद्धा प्रतिष्ठा लोकस्य देवी-श्रद्धा देवी ही विश्व की प्रतिष्ठा है, प्राधारशिला है। यदि यह आधार हिल गया, तो समूचा विश्व डगमगा जाएगा। भूचाल आते हैं, तो हमारे पुराने पंडित लोग कहते हैं, शेषनाग ने सिर हिलाया है। मैं सोचता हूँ, साधक जीवन में जब-जब भी उथलपुथल होती है, गड़बड़ मचती है, तब अवश्य ही श्रद्धा का शेषनाग अपना सिर हिलाता है। अवश्य ही कहीं वह स्खलित हुआ होगा, उसका कोई आधार शिथिल हुआ होगा।
पति-पत्नी का, पिता-पुत्र का सबसे निकटतम सूत्र भी विश्वास के धागों से निर्मित हुआ है, और राष्ट्र-राष्ट्र का विराट् सम्बन्ध भी इसी विश्वास के सूत्र से बँधा हुआ है। मैं पूछता हूँ, पति-पत्नी कब तक पति-पत्नी है ? जब तक उनके बीच स्नेह एवं विश्वास का सूत्र जुड़ा हुअा है। यदि पति-पत्नी के बीच संशय पा जाता है, मन में अविश्वास हो जाता है, तो वे एक दिन एक-दूसरे की जान क ग्राहक बन जात ह। सामाजिक मयादावशव जात-जा भल हा साथ रहते हैं, परन्तु ऐसे रहते हैं, जैसे कि एक ही जेल की कोठरी में दो दुश्मन साथ-साथ रह रहे हों। घर, परिवार, समाज और राष्ट्र के हरे-भरे उपवन वीरान हो जाते हैं, बर्बाद हो जाते है, संशय एवं अविश्वास के कारण। विश्व में और खासकर भारत में आज जो संकट छाया
प्रात्म-जागरण
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