________________
है, वह विश्वास का संकट है, श्रद्धा का संकट है। आज किसका भरोसा है कि कौन किस घड़ी में बदल जाएगा ? समर्थक विरोधी बन जाएंगे, इकरार इन्कार में बदल जाएँगे? अविश्वास के वातावरण से समूचा राष्ट्र दिशाहीन गति-हीन हुअा जा रहा है। जीवन अस्तव्यस्त-सा बिखर रहा है। मैं आपसे कहता हूँ, यह निश्चय समझ लीजिए, जब तक मन में से अविश्वास एवं संशय का भाव समाप्त नहीं होगा, तब तक राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकेगा, भुखमरी और दरिद्रता से मुक्ति नहीं पा सकेगा। अमेरिका और रूस की सहायता पर आप अधिक दिन नहीं जी सकते। आपके जीने का अपना आधार होना चाहिए। सोने के लिए पड़ोसी की छत मत ताकिए, आखिर अपनी छत ही आपके सोने के काम में आ सकती है। अपना बल ही आपके चलने में सहयोगी होगा। और, वह बल कहीं और स्थान से नहीं, आपके ही हृदय के विश्वास से, निष्ठा से प्राप्त होगा।
हमारा जीवन कीड़े-मकोड़ों की तरह अविश्वास की भूमि पर रेंगने के लिए नहीं है। आस्था के अनन्त गगन में गरुड़ की भाँति उड़ान भरने के लिए है। हम भविष्य के स्वप्न देखने के लिए है, सिर्फ देखने के लिए ही नहीं, स्वप्नों को साकार करने के लिए हैं।
श्रद्धा का बीज :
श्रद्धा का बीज मन में डालिए, फिर उस पर कर्म की वृष्टि कीजिए। तथागत बुद्ध ने एकबार अपने शिष्यों से कहा था-भिक्षुनो ! श्रद्धा का बीज मन की उर्वर-भूमि में डालो, उस पर तप की वृष्टि करो, सुकृत का कल्पवृक्ष तब स्वयं लहलहा उठेगा-"सद्धा बीजं तपो
बुट्ठी।"
. भारतीय जीवन आस्थावादी जीवन है, उसका तर्क भी श्रद्धा के लिए होता है। मैं आपसे निरी श्रद्धा-जिसे आज की भाषा में अन्धश्रद्धा (ब्लाइण्ड फैथ) कहते हैं, उसकी बात नहीं करता। मैं कहता हूँ जीवन के प्रति, अपने भविष्य के प्रति विवेकप्रधान श्रद्धाशील होने की बात ! अपने विराट् उज्ज्वल भविष्य का दर्शन करना, उस ओर निष्ठापूर्वक चल पड़ना, चलते रहना, यही मेरी श्रद्धा का रूप है। यही भारत का गरुड़ दर्शन है। हमारे जीवन में अपने हीनतावादी मन्थरा का दर्शन नहीं आना चाहिए। अपने भविष्य को अपनी उन्नति एवं विकास की अनन्त संभावनाओं को क्षद्र दष्टि में बन्द नहीं करना है, किन्तु उसके विराट स्वरूप का दर्शन करना है और फिर दृढ़ निष्ठा एवं दृढ़ संकल्प का बल लेकर उस ओर चल पड़ना है। लक्ष्य मिलेगा, निश्चित मिलेगा। एक बार विश्वास का बल जग पड़ा, तो फिर इन क्षुद्रता के बन्धनों के टूटने में क्या देरी है-"बद्धो हि नलिनीनालः ,कियत् तिष्ठति कुञ्जरः....?" कमल की नाल से बँधा हा हाथी कितनी देर रुका रहेगा ? जब तक चलने का संकल्प न जगे, अपने चरण को गति नहीं दे, तब तक ही न ! बस, चरण बढ़े कि बन्धन टूटे। आप भी जब तक श्रद्धा से चरण नहीं बढ़ाते हैं, संशय से विश्वास की ओर नहीं मुडते हैं, तब तक ही यह बन्धन है, यह संकट है ! बस, सच्चे विश्वास ने गति ली नहीं कि बन्धन टूटे नहीं, और जैसे ही बन्धन टूटे कि मुक्ति सामने ही खड़ी है, स्वागत में।
तथा
१. हमहूँ कहब अब ठकुर सुहाती । नाहीं तो मौन रहब दिन राती। कोउ नृप होउ हमहिं का हानी। चेरी छाडि कि होइब रानी।
--रामचरित मानस
२१०
पन्ना समिक्खए धम्म
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org