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कर लेता है । हाथ की रेखाओं की तरह संसार की भौतिक हलचलें, उनके सामने स्पष्ट रहती हैं । केवलज्ञान की शक्ति तो उनसे भी अनन्तगुनी अधिक है, उसका कोई पार ही नहीं है।
आत्म-विश्वास का चमत्कार :
जिस जीवन यात्री का, अपने पर भरोसा होता है, आत्म-शक्ति पर विश्वास होता है, वह कहीं बाहर में नहीं भटकता । वह अपनी गरीबी का रोना कहीं नहीं रोता । उसके अन्दर और बाहर में सर्वत्र आत्म-विश्वास की रोशनी चमकने लग जाती है। जितने भी शास्त्र हैं, गुरु हैं, सब शिष्य के सोए हुए आत्म-विश्वास को जगाने का प्रयत्न करते हैं। रामायण में एक वर्णन आता है कि जब हनुमान राम के दूत बनकर लंका में पहुँचे, तो राक्षसों के किसी भी अस्त्र-शस्त्र से वे पराजित नहीं हुए। किन्तु, आखिर इन्द्रजीत के नागपाश में बंध गए । और, जब रावण की सभा में लाए गए, तो रावण ने व्यंग्य किया ।
"हनुमान ! तुम हमारे पीढ़ियों के गुलाम होकर भी आज हमसे ही लड़ने प्राए हो । यदि तुम दूत बनकर नहीं आए होते, तो तुम्हारा वध कर दिया जाता । किन्तु, दूत अवध्य होता है, अत: तुम्हें तुम्हारा मुँह काला करके नगर से बाहर निकाला जाएगा।'
हनुमान ने जब यह सुना तो उसका प्रात्मतेज हुँकार कर उठा। उसने सोचा - यह अपमान हनुमान का नहीं, राम का है; मैं तो उन्हीं का दूत हूँ । शरीर मेरा है, आत्मा तो राम की है। भक्त में हमेशा ही भगवान् की आत्मा बोला करती है, तो मैं अपने भगवान् का यह अपमान कैसे सह सकता हूँ? बस हनुमान में आत्मा की वह शक्ति जगी कि एक झटके में ही वह नागपाश को तोड़कर मुक्त प्रकाश में पहुँच गए। हनुमान जब तक नागपाश की शक्ति को अपनी शक्ति से बढ़कर मानते रहे, तब तक नागपाश में बँधे रहे। और, जब हनुमान को नागपाश की शक्ति से बढ़कर अपनी शक्ति का भान हुआ, तो नागपाश को टूटते कुछ भी समय नहीं लगा ।
यह स्थिति केवल रामायण के हनुमान की ही नहीं है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य और प्रत्येक प्राणी की है। जब तक उसे अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं है, तब तक वह दुर्बलता के हाथों का खिलौना बना रहता है, किन्तु जब आत्मशक्ति का विश्वास हो जाता है, अपने अनन्त शौर्य का भान हो जाता है, तब वह किसी के अधीन नहीं रहता । मनुष्य को अपनी दीन-हीन स्थिति पर निराश न होकर अपनी आत्मशक्ति को जगाने का प्रयत्न करना चाहिए। जितने भी महापुरुष संसार में हुए हैं, उन सबने अपनी प्रात्मशक्ति को जगाया है और इसी के सहारे के विकास की चरम कोटि पर पहुँचे हैं। उन सबका यही संदेश है कि अपनी श्रात्मशक्ति को जगाओ । आत्म जागरण ही तुम्हारे विकास का प्रथम सोपान है ।
संकल्प-बल :
भारतीय दर्शन का एक मात्र स्वर रहा है क्या थे, इसकी चिन्ता छोड़ो, क्या है, इसकी भी चिन्ता न करो, लेकिन यह सोचो कि क्या बनना है। क्या होना है, इसका नक्शा बनायो, रेखाचित्र तैयार करो, अपने भविष्य का संकल्प करो। जो भवन बनाना है, उसका नक्शा बनाओ, रेखाचित्र तैयार करो और पूरी शक्ति के साथ जुट जाओ, उसे साकार बनाने में । संकल्प कच्चा धागा नहीं है, जो एक झटका लगा कि टूट जाए। वह लौह-शृंखला से भी अधिक दृढ़ होता है । झटके लगते जाएँ, तूफान आते जाएं, पर संकल्प का सूत्र कभी टूटने न पाए। दिन पर दिन बीतते चले जाते हैं, वर्ष पर वर्ष गुजरते जाते हैं, और तो क्या, जन्म के जन्म बीतते जाते हैं, फिर भी साधक स्वीकृत पथ पर चलता जाता है, अटूट श्रद्धा एवं संकल्प का तेज लिए हुए । चलने वाले को यह चिन्ता नहीं रहती कि लक्ष्य अब कितना दूर रहा है ! वह तो चलता ही रहता है, एक न एक दिन लक्ष्य मिलेगा ही, इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में । संकल्प सही है, तो वह पूरा होकर ही रहेगा। उसके लिए प्रयत्न अवश्य किया जाता है, परन्तु समय की सीमा नहीं होती । मृत्यु का भय भी नहीं होता । संकल्प
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पा समिक्er धम्मं
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