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वर्तमान जीवन की प्रशंसा प्रलोभन को छोड़ो और परलोक की आशंसा प्रलोभन को भी छोड़ो। दुःख र सुख, जीवन और मरण के बीच का जो समत्व का मार्ग है, उस पर बढ़ो । वही साधना का सही मार्ग है। जैन दर्शन ने जिस प्रकार भय प्रताड़ित भावनाओं को हेय माना है, उसी प्रकार लोभाकुल विचारों को भी निकृष्ट कोटि पर रखा है। साधना के पीछे दोनों ही नहीं होने चाहिए। स्वर्ग के सुखों का प्रलोभन भी मनुष्य को दिङ्मूढ़ कर देता है । जिस प्रकार सात भय में परलोक का भय भी एक भय है, उसी प्रकार स्वर्गादि की प्राप्ति की कामना भी एक तीव्र प्रासक्ति है। दोनों ही मोह कर्म के उदय का फल है ! इसके पीछे मनोवैज्ञानिक पहलू यह है कि जो भय एवं प्रलोभन के कारण, चाहे वह लौकिक हो अथवा पारलौकिक, साधना पथ पर चरण बढ़ाता है, वह प्रसंगोपात्त भय एवं प्रलोभन
उक्त भावना के हटते ही साधना पथ को छोड़कर दूर खड़ा हो जाता है। चूँकि यह निश्चित है कि जो जिस कारण से प्रेरित होकर कार्य होता है, उस कारण के हटते ही वह कार्य भी अवरुद्ध हो जाता है । इस प्रकार साधना के पीछ सहज निष्ठा और ईमानदारी की भावना नहीं रहती, प्राणार्पण की वृत्ति नहीं रहती, बल्कि सिर्फ सामयिक एवं तात्कालिक भय मुक्ति और सुखलाभ की ही भावना रहती है। ऐसा व्यक्ति साधना के क्षत्र में सतत आनंदित नहीं रह सकता । साधना का तेज और उल्लास उसके चेहरे पर दमकता नजर नहीं आता ।
. साधना की अग्नि में आत्मा की शुद्धि और उसकी पवित्रता एवं निर्मलता कुछ ऐसी हो कि वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रिय जीवन में उसकी निर्मल ज्योति निखरती रहे । उसमें आनन्द एवं रस का प्रवाह बहता रहे। भारत के महान् श्राचार्यों ने साधक को सम्बोधित करते हुए कहा कि तू साधना के क्षेत्र में श्राया है। भगवान् का स्मरण एवं जप श्रादि करता है, परन्तु उसके फलस्वरूप यदि किसी प्रकार के फलविशेष की मांग उपस्थित करता है, तो इस प्रकार स्वयं ही आदान-प्रदान और प्रतिफल निश्चित करने का तुझे कोई अधिकार नहीं है । तू तो बस साधना कर । उसके लिए सिद्धि की लालसा क्यों करता है ! उसके फल के प्रति क्यों ग्रासक्त रहता है ? फल की कामना से की गई साधना वास्तव में शुद्ध साधना नहीं कहलाती है । शास्त्रों में कहा है
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'सव्वत्थ भगवया श्रनियाणया पसत्या' '
भगवान् ने निष्काम साधना ( अनिदान वृत्ति) की प्रशंसा की है। सच्चा भक्त भगवान की स्तुति करते हुए यही कहता है कि 'हे भगवन् ! मैंने जो भी आपकी प्रार्थना एवं स्तुति की है, आपश्री के चरणों में जो भी श्रद्धा पुष्प चढ़ाए हैं, वे कोई शेर, सर्प, चोर, जल, अग्नि, व्याधि, नरक आदि दुःखों से बचने के लिए नहीं चढ़ाए हैं, बल्कि मेरे अन्तर मानस में आपका दिव्य प्रकाश जगमगाए और मैं आपके ही स्वरूप को पा जाऊँ, बस मेरी श्रद्धांजलि इतने ही अर्थ में कृतार्थ हो जाएगी ।'
यदि कोई चिलचिलाती धूप में तप रहा हो, रेगिस्तान की तन झुलसती गर्मी में जल रहा हो, और पास में कोई हरा भरा छायादार वृक्ष खड़ा हो तो यात्री को वृक्ष से छाया एवं शीतलता प्रदान करने की प्रार्थना नहीं करनी होती । बस छाया में जाकर बैठने की आवश्यकता है। बैठते ही शीतलता प्राप्त हो जाएगी। किन्तु यदि वह दूर खड़ा खड़ा वृक्ष से छाया की केवल याचना ही करता रहे, तो वृक्ष कभी भी निकट आकर छाया नहीं देगा, ताप नहीं मिटाएगा । वृक्ष से छाया की याचना करना मूर्खता है। संसार के मरुस्थल में भटकतेभटकते अनादिकाल बीत गया । शुभ-योग से कभी समय आया कि सद्गुणों का धर्ता सद्गुरु
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दशाश्रुत-स्कन्ध
छाया तरूं संश्रयतः स्वतः स्यात् ।
कि छायया याचितयात्मलाभः ।। -विषापहार स्तोत्र
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पन्ना समिक्ee धम्मं
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