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एवं राष्ट्रिय जीवन के तटों को भी सरसब्ज बनाए। नदी का, नहर का और तालाब का तट एवं परिपार्श्व कभी भी सूखा नहीं रह सकता। वहाँ हरीभरी हरियाली की मोहक छटा छिटकती मिलेगी। यदि बाह्य और अन्तर जीवन में फर्क है, तो इसका मतलब यही है कि बाहर और भीतर दोनों ओर दिवाला ही दिवाला है, जीवन में धर्म का देवता प्रकट हुआ ही नहीं है, सिर्फ उसका स्वाँग ही रचा गया है। वंचना और प्रतारणा मात्र है।
भय और प्रलोभन :
दुर्भाग्य यह है कि धर्म और वैराग्य के कुछ ऐसे रूप बन गए हैं कि यहाँ वही सबसे बड़ा साधक समझा जाता है, जो जीवन में सब ओर से उदासीन रहे। वह हर समय, हर क्षण मृत्यु की नाटकीय यातनाओं को सामने रखता हुआ, जीवन के प्रति बिल्कुल नीरसता का भाव बनाए रखे। उसकी वाणी पर हमेशा संसार के दुःख, पीड़ा एवं शोक की गाथाएँ ही मुखरित होती रहें। संसार के प्रति सदा ही उसका दृष्टिकोण घृणा, भय और असन्तोष से भरा रहता है। इस प्रकार उस साधक के जीवन में सदा मुर्दनी छाई रहती है। और सर्वत्र मृत्यु-ही-मृत्यु, भय-ही-भय' एवं रुदन-ही-रुदन उसकी आँखों में रहते हैं। ऐसा साधक साधना के आनन्द रूप अमृत फल का रसास्वादन नहीं कर सकता। जीवन की रस धारा एवं निर्भयता का आनन्द नहीं ले सकता और न ही धर्म का स्वस्थ उल्लास ही कभी उसके मुख पर उभर सकता है।
भारतीय दर्शनों में नरक की पीड़ाओं और यातनाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है, और कहा गया है कि धर्म उनसे मुक्ति दिलाता है। किन्तु यदि नरक की दारुण यातनाओं
और पीड़ाओं से घबरा कर व्यक्तिगत मुक्ति पाने के लिए ही हम धर्म की शरण लेते हैं, तो यह स्थिति उस बच्चे की स्थिति के समान हुई, जो गली में कुत्ते के डर से रोता-चिल्लाता
और भागता हुआ माता की गोद में आकर चिपक जाता है। बच्चे की इस दौड़ में प्रेम का रस नहीं है। वह माता-पिता की गोद में प्रेमवश नहीं गया है, बल्कि कुत्ते के भय से घबराकर गया है। यदि कुत्ते का भय नहीं होता, तो वह दिन भर गली में खेलता रहता । माता के बुलाने पर भी खेल छोड़कर नहीं आता। आज इसी बच्चे के समान हजारों साधकों की स्थिति है। वे साधक संसार के दुःखों, कष्टों और यातनाओं के भय से भागकर भगवान्
और धर्म की गोद में दौड़े आ रहे हैं। भजन, ध्यान आदि का क्रम चल रहा है जरूर, किन्तु ये सब नरक आदि के दुःखरूप कुत्तों के डर से भागकर धर्म और साधना की गोद में जाने जैसी ही क्रियाएँ हैं । उनके सामने भगवान् का, धर्म का प्रेम नही है, बल्कि नरक के कुत्ते का डर है। वहीं एक डर उनकी आँखों में छाया हुआ है। उन्हें बस नरक के उन दुःखों और कष्टों से मुक्ति चाहिए और कुछ नहीं। किन्तु भारतवर्ष के विचारशील प्राचार्यों ने, सुविज्ञ मनीषियों ने कहा है कि इस प्रकार कष्टों, दुःखों और पीड़ाओं से आतंकित, भयप्रताड़ित एवं विक्षब्ध होकर ताण पाने की चेष्टा में धर्माराधन करनेवाला व्यक्ति मक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जो भय और पीड़ानों से संत्रस्त एवं व्याकुल होकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करता है, उसे मुक्ति नहीं मिल पाती। भय तो स्वयं कर्म विशेष के उदय भाव का द्योतक है। वह मोहनीय कर्म का एक अंग है। चाहे वह यहाँ वर्तमान जीवन से सम्बन्धित हो, या परलोक सम्बन्धी पीड़ानों और दुःखों की कल्पना से उद्भत हुआ हो, अथवा भूतकाल की यातनाओं और संकटों के स्मरण से उत्पन्न हुआ हो, भय आखिर भय है। भय की जाति एक ही है। भयभित धर्म एवं दुःखजनित वैराग्य साधना के मार्ग को प्रशस्त नहीं बना सकते। इसीलिए भगवान् ने कहा है
"नो इहलोगासंसप्पनोगे। नो परलोगासंसप्पप्रोगे॥"
धर्म का उद्देश्य क्या है ?
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