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की समग्र सत्ता का एक वास्तविक जागरण है। ध्यान हमारी अशुद्ध शक्तियों का शोधन करता है। ध्यान के द्वारा ही चेतना की अशुभ धारा शुभ में रूपान्तरित होती है, शास्त्र की भाषा में कहें, तो चेतना की शुभाशुभ समग्र धारा शुद्ध में रूपायित हो जाती है। प्रकाश में जैसे अन्धकार विनष्ट हो जाता है, वैसे ही ध्यान की ज्योति में विकृतियाँ सर्वतो भावन समाप्त हो जाती हैं। विकृतियों का तभी तक शोरगुल रहता है, जब तक कि चेतना सुप्त है। चेतना की जागति में प्राध्यात्मिक सत्ता का अथ से इति तक संपूर्ण कायाकल्प ही हो जाता है, फलतः अन्तरात्मा में एक अद्भुत नीरव एवं प्रखण्ड शान्ति की धारा प्रवाहित होने लगती है। चेतना के वास्तविक जागरण में कोई न तनाव रहता है, न पीड़ा, न दुःख, न द्वन्द्व । जिसे हम मन की प्राकुलता कहते हैं, चित्त की व्यग्रता कहते हैं, उसका तो कहीं अस्तित्व तक नहीं रहता। ध्यान' चेतना के जागरण का अमोघ हेतु है। हेतु क्या, एक तरह से यह जागरण ही तो स्वयं ध्यान है।
ध्यान का अर्थ है--- अपने को देखना, अन्तर्मुख होकर तटस्थ भाव से अपनी स्थिति का सही निरीक्षण करना। सुख-दुःख की, मान-अपमान की, हानि-लाभ की, जीवन-मरण की जो भी शुभाशुभ घटना हो रही है, उसे केवल देखिए । राग-द्वेष से परे होकर तटस्थ भाव से देखिए। केवल देखना भर है, देखने के सिवा और कुछ नहीं करना है। बस, यही ध्यान है। शुभाशुभ का तटस्थ दर्शन, शुद्ध 'स्व' का तटस्थ निरीक्षण ! चेतना का बाहर से अन्दर में प्रवेश ! अन्दर में लीनता!
सर्वप्रथम स्थान-शरीर की स्थिरता, फिर मौन--वाणी की स्थिरता, और फिर ध्यान--अन्तर्मन की स्थिरता। आज भी हम कायोत्सर्ग की स्थिति में ध्यान करते समय यही कहते हैं-'ठाणेणं, मोणणं, झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि।' महावीर के ध्यान का यही क्रम था। और, इस प्रकार तप करते-करते महावीर का ध्यान हो जाता था, अथवा यों कहिए कि ध्यान करते-करते, अन्तर्लीन होते-होते तप हो जाता था। यदि स्पष्टता के साथ वस्तुस्थिति का विश्लेषण किया जाए, तो ध्यान स्वयं तप है। स्वयं भगवान की भाषा में अनशन प्रादि तप बाह्य तप हैं। इनका सम्बन्ध शरीर से अधिक है। शरीर की भूख-प्यास आदि को पहल निमंत्रण देना और फिर उसे सहना, यह बाह्य तप की प्रक्रिया है। और ध्यान अन्तरंग तप है, अन्तरंग अर्थात् अन्दर का तप, मन का तप, भाव का तप, स्व का स्व में उतरना, स्व का स्व में लीन होना। महावीर की यह आत्माभिमुख ध्यान-साधना धीरे-धीरे सहज होती गई, अर्थात् अन्तर्लीनता बढ़ती गई। विकल्प कम
त गए, चचलता-उद्विग्नता कम होती गई और इस प्रकार धीरे-धीरे निविकल्पता, उदासीनता, अनाकुलता, वीतरागता विकसित होती गई। ध्यान सहज होता गया, हर क्षण, हर स्थिति में होता गया। महावीर के जीवन में प्राकुलता के, पीड़ा के, द्वन्द्व के एकसे-एक भीषण प्रसंग पाए। किन्तु महावीर अनाकुल रहे, निर्द्वन्द रहे । महावीर ध्यानयोगी थे, अतएव वे हर अच्छी-बुरी घटना के तटस्थ दर्शक बन कर रह सकते थे। इसीलिए अपमान-तिरस्कार के कड़वे प्रसंगों में, और सम्मान-सत्कार के मधुर क्षणों में उनकी अन्त. श्चेतना सम रही, तटस्थ रही, वीतराग रही। वे आने वाली या होने वाली हर स्थिति के केवल द्रष्टा रहे, न कर्ता रहे और न भोक्ता । हम बाहर में उन्हें अवश्य कर्ता-भोक्ता देखते हैं। किन्त देखना तो यह है कि वे अन्दर में क्या थे? सख-दःख का कर्ता-भोक्ता विकल्पात्मक स्थिति में होता है। केवल द्रष्टा ही है, जो शुद्ध निर्विकल्पात्मक ज्ञान-चेतना का प्रकाश प्राप्त करता है। धर्म, दर्शन और अध्यात्म :
धर्म, दर्शन और अध्यात्म का प्रायः समान अर्थ में प्रयोग किया जाता है, किन्तु गहराई से विचार करें तो इन तीनों का मूल अर्थ भिन्न है। अर्थ ही नहीं, क्षेत्र भी भिन्न है। - धर्म का सम्बन्ध प्राचार से है। 'प्राचारः प्रथमो धर्मः।' यह ठीक है कि बहुत
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