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और इसके विपरीत यदि आपकी चेतना कुण्ठाग्रस्त है, उसका प्रवाह अधोमुखी है, तो आप ईर्ष्या और डाह से जल उठेंगे। किसी के गुणों की प्रशंसा सुनकर मन ही मन तिलमिला उठेगे, जैसे सौ-सौ बिच्छुओं के एक साथ डंक लग गये हों! किसी को बढ़ते देखकर उस पर व्यंग्य करेंगे, उसे गिराने की चेष्टा करेंगे।
अब आप सोचिए, इन दोनों स्थितियों में कौन-सी स्थिति श्रेष्ठ है ? प्रमोद से जीना, दूसरों के गणों और विशेषताओं पर प्रसन्नतापूर्वक जीना-यह ठीक है, या रात दिन ईर्ष्या-डाह से तिलमिलाते रहना ? जब तक वीतराग-दशा नहीं आती है, तब तक इन दोनों में से एक मार्ग चुनना होगा। पहला मार्ग है, शुभ राग का और दूसरा मार्ग है, अशुभ राग का, द्वेष का। राग जब अधोमुखी होता है, तो अन्ततः वह द्वेष का रूप ले लेता है, इसलिए अशुभ राग या द्वेष में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता। गुणों का आदर : प्रमोद भावना : - जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में चार भावनाएँ आती हैं, उन चार भावनाओं में दूसरी भावना है---"गणिषु प्रमोद" गणी के प्रति प्रमोद-प्रसन्नता की भावना! जैनदर्शन की तो यह उच्चतम जीवन-दृष्टि है। हम अपने में, अपने परिपार्श्व में कहीं भी, किसी चेतना को विकसित होते देखकर, कहीं भी ज्योति को चमकते देखकर, उसके प्रति प्रसन्नता अनुभव करें, प्रमोद से पुलक उठे-यह जीवन में सबसे बड़ा प्रानन्द का मार्ग है। गुणों का स्वागत करना, उनके विकास को प्रोत्साहित करना, हमारी आध्यात्मिक चेतना की ऊर्ध्वमुखी वृत्ति है। भगवान महावीर ने इस वृत्ति को राग तो कहा है, पर शुभ राग कहा है और इसे प्रोत्साहित किया है। आगमों में जहाँ महावीर ने श्रावकों का वर्णन किया है, वहाँ पर एक विशेषण प्राता है, "अदिमिज्ज पेमाणुराग रत्ते"-वे अस्थि और मज्जा तक धर्म के प्रेमानुराग से रंजित थे! यह निश्चित है कि यह 'प्रेमानुराग' वीतराग धर्म तो नहीं है, फिर भी धार्मिक की उल्लेखनीय विशेषता है। अतः इसका अर्थ है-अनुराग, गुणानुराग, धर्मानुराग। और, यह जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वीतरागता के नाम पर यदि हम किसी उभरते हुए व्यक्तित्व को देखकर भी मौन रहते हैं, किसी सद्गुणों के कल्पवृक्ष को लहलहाते देख कर भी उदासीन बने रहते हैं, तो मैं मानता हूँ, हमारी चेतना अभी कुण्ठित है, उसका प्रवाह अधोमुखी है और यह वृत्ति जीवन एवं जगत् के लिए घातक है।
मैं आपसे स्पष्ट कह दूं कि जब भी किसी होनहार व्यक्तित्व में विकास की अनेक संभावनाओं पर दृष्टि डालता हूँ, तो मुझे उसमें सर्जना की अनेक मौलिक कल्पनाएँ छिपी मिलती हैं। इनमें बौद्धिक विलक्षणता, तटस्थ चिंतन तथा सत्यानुलक्षी स्पष्टवादिता
आदि कुछ ऐसी विशेषताएँ निहित पाता हूँ, जो मेरे मन को प्रमुदित कर देती हैं। मानव की यही महान् निष्ठा है, शुभ वृत्ति है कि वह कहीं किसी श्रेष्ठता को, अच्छाई को अंकुरित होते देखे, तो सहज सद्भाव से उसके प्रति आकृष्ट हो; उसको विकसित होते देखे, तो सहज प्रसन्नता से झूम उठे।।
कभी-कभी सोचता हूँ, हमारे श्रमण-श्रमणी वर्ग में भी यदि गुणानुराग के रूप में व्यवहार की सरलता और पवित्रता बनी रहे, तो हम अपने पवित्र आदर्शों को जन-जीवन में बहुत-कुछ उजागर कर सकते है। बिना किसी जाति, पन्थ या देश-भेद के गुणीजनों के श्रेष्ठ जीवन के प्रति अनुराग होना, एक उदात्त भाव है। मैं तो कहूँगा कि यदि किसी में गुणानुराग दृष्टि है, तो वह अवश्य ही एक पवित्र अनुराग की भावना से आप्लावित मानव ही नहीं, महामानव है।
जैसा कि मैंने प्रारम्भ में कहा-धर्म और अध्यात्स की भूमिका पर खड़े होकर हमने कुछ बहुत ऊँची बातें सोची हैं। जीवन में निरपेक्षता और वीतरागता के उत्तरोत्तर अनेक आदर्श भी खड़े किए हैं, किन्तु वह भूमिका इतनी ऊँची है कि हम यों ही छलांग
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पन्ना समिक्खए धम्म
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