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क्या ? एक भी चित्र नहीं, भित्ति पर रंग की कहीं एक भी तो रेखा नहीं ? कहाँ हैं, तुम्हारे चित्र ? छह महीने तक क्या किया तुमने ? खाट तोड़ी या डंड पेले ?"
चित्रकार ने निवेदन किया- "महाराज ! इसी में हैं मेरे सारे चित्र यहीं पर अंकित हैं महाराज !"
राजा ने कहा--" क्या मजाक है ? यहाँ तो सिर्फ दीवार है, साफ, चिकनी चमकती हुई ! उस पर रंग का एक बिन्दु भी तो नहीं ! बताओ, कहाँ हैं, तुम्हारे चित्र ? " चित्रकार ने बीच का पर्दा उठा दिया । पर्दा उठाते ही उधर के सब चित्र इधर प्रतिबिम्बित हो उठे । राजा और मन्त्री लोग बड़े आश्चर्य से देखते रह गए। यह कैसा चमत्कार है ? सभी को बड़ा विस्मय हुआ । चित्रकार ने समस्या को सुलझाया--प्रापका आदेश था कि दोनों के चित्र, शैली और रंग एक समान ही होने चाहिए, और एक-दूसरे का चित्र कोई देखे भी नहीं, तो इसीलिए उसने चित्र बनाए और मैंने उन्हें यहाँ ज्यों-कात्यों प्रतिबिम्बित करने के लिए अपनी दीवार को तैयार किया। छह महीने तक अथक परिश्रम करके इसे साफ किया, रगड़ा, चमकाया और बिल्कुल शीशे की तरह उज्ज्वल और चमकदार बना दिया। इसमें वह शक्ति पैदा कर दी कि किसी भी वस्तु को यह अपने में प्रतिबिम्बित कर सकती है । परन्तु जबतक पर्दा बीच में था, तबतक तो कुछ भी नहीं मालूम होता था । पर्दा हट गया, तो सब कुछ इसमें झलक उठा, वे ही सब चित्र इसमें प्रतिबिम्बित हो गए।
राजमार्ग :
कहने का अभिप्राय यह है कि आत्मा पर मोह एवं कषाय का एक सघन पर्दा पड़ा हुआ है, जब तक वह पर्दा नहीं हटता, 'जिनत्व' जागृत नहीं होता, चेतना में कालिक सत्य झलक नहीं सकता। दीवार की सफाई और चमकाने की तरह आत्मा की सफाई भी जरूरी है। जब तक दीवार साफ नहीं, तब तक चित्र कैसे प्रतिबिम्बित हो सकेंगे । वह स्वच्छ दीवार तैयार करना - साधना के द्वारा आत्मा की सफाई, स्वच्छता एवं निर्मलता पैदा करना है । साधना के द्वारा यदि आत्मा स्वच्छ एवं निर्मल हो गई, तो वहाँ जिनव का शुद्ध स्थिति में अनन्त सत्य के प्रतिबिम्बित होने में कोई भी शंका नहीं है । आत्मा की विकासभूमि तैयार करने के लिए साधना श्रावश्यक है । अतः स्पष्ट है कि साधना का मार्ग राजमार्ग है । राजमार्ग पर ब्राह्मण को भी चलने का अधिकार है, हरिजन एवं चमार को भी । वहाँ स्त्री भी चल सकती है और पुरुष भी । गोरा श्रादमी भी चल सकता है और काला भी । किसी के लिए वहाँ किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं; कोई रुकावट नहीं । इस मार्ग पर चलने वाले से किसी को यह पूछने का अधिकार नहीं कि तुम्हारी जाति क्या है ? तुम्हारा देश क्या है ? पंथ क्या है ? तुम्हारी परम्परा क्या है ? तुम धनी हो या निर्धन ? काले हो या गोरे ? हिन्दू हो या मुसलमान ?
एक प्राचीन जैन मनीषी ने कहा है
"अन्नोन्नदेसजाया, अनोनाहार बढिय सरीरा । जे जिणधम्मपवना, सव्वे ते बंधवा भणिया ।। "
अलग-अलग देशों में, अलग-अलग प्रदेशों और अलग-अलग कुलों जातियों में जन्म लेने वाले, खान पान और रहन-सहन आदि के विभिन्न प्रकारों में पलने वाले भी यदि 'जिन - धर्म' अर्थात् वीतराग भाव को स्वीकार करते हैं, तो वे परस्पर भाई-भाई हैं । उनकी साधना की भूमिका में कोई विभेद-रेखा नहीं खींची जा सकती ! धर्म-साधना के क्षेत्र में उनके - भ्रातृत्व का, समत्व का दर्जा खण्डित नहीं हो सकता ।
यह एक दृष्टिकोण है, जो साधना के क्षेत्र में चलने वालों के लिए प्रखण्ड प्रेम, स्नेह और सद्भाव का संदेश देता है। धर्म कोई जाति नहीं है, वंश-परम्परा नहीं है । शरीर
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पन्ना समिक्ख धम्मं
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