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है। इस कयन का निष्कर्ष यह है कि हमारी जो साधना है, हमारा जो ज्ञान है, वही तीर्थ है। और, वह तीर्य कोई व्यक्ति नहीं होता, बल्कि आत्मा का निर्मल चतन्य होता है। किसी भी प्रकार की भेद की कल्पना को उसमें प्रश्रय नहीं दिया जाता। जाति, सम्प्रदाय, लिंग और रंग आदि की भाषा, धर्म की भाषा नहीं हो सकती। न वह साधना की भाषा हो सकती है, और न साधक की ही भाषा हो सकती है।
साधक: एक अपराजेय योद्धा:
साधना का क्षेत्र सबके लिए खुला है, यह बात जितनी सत्य है उतना ही सत्य यह भी है कि वह सिर्फ वीर के लिए है। साधना का मार्ग कंटकाकीर्ण और विकट मार्ग है। आचारांग सूत्र में उसे महावीथि-महापथ कहा है--"पणया वीरा महावीहिं"। उस पथ पर वही चल सकता है, जिसके अन्तस्तल में अपार धैर्य उमड़ता हो, साहस और सहिष्णुता का ज्वार उठ रहा हो ! जो विषयों और आकांक्षाओं से लड़कर विजय प्राप्त कर सकता हो, वही वीर योद्धा इस क्षेत्र का अधिकारी हो सकता है। यह नहीं कि वेष ले लिया, पाराम से मांगकर खा लिया, निश्चित होकर सो गए और सुख-चैन से जिन्दगी गुजार दी! जब तक कष्ट नहीं आए, जीवन में तूफान नहीं पाए, संघर्षों के भूचाल नहीं उठे, तब तक जमे रहे और जब तूफानों का सामना करना पड़ा, तो बस भाग खड़े हुए। पाँव उखड़ गए ! वह वीर नहीं, जो तलवारों की चमक देखकर पसीना-पसीना हो जाए ! भालों और वाणों की बौछार देखकर कलेजा धक-धक कर उठे। बल्कि वीर वही है, जो प्राणों पर खेले, वीरता से जीए और मरे भी तो वीरता से मरे !
मुझ काश्मीर के राजा ललितादित्य की एक बात याद आ रही है। जब देश पर प्राक्रमण हवा. तो वे बहुत कम उम्र के बालक थे। पिता का देहान्त हो जाने से पडौसी शत्रु राजा ने अनुकूल अक्सर देखा और चढ़ाई कर दी। इधर प्रधान मन्त्री ने भी युद्ध की तैयारियां शुरू कर दी। राजकुमार युद्ध में जाने को तैयार हुआ, तो प्रधान मन्त्री ने उसे समझाया--"आप तो यहीं पर रहिए, अभी छोटे हैं ! हम लोग युद्ध में जा रहे हैं।" सेनापति ने भी यही कहा । राजमाता और अन्य हितैषियों ने भी राजकुमार को यही समझाया कि “तुम अभी बालक हो, अतः राजमहल में ही रहो! हम सब तुम्हारे ही तो है !" ललितादित्य ने कहा--"आप सब मेरे हैं, तो मैं भी तो आपका ही हूँ। प्रजा जब राजा की है. तो राजा भी प्रजा का है। प्रजा किस आधार पर है? उसका जनक कौन है ? राजा ही न ! और राजा किस पर टिका है ? राजा को जन्म कौन देता है ? प्रजा ! अतः प्रजा रणक्षेत्र में जूझती रहे और राजा राजमहल में एक चूहे की तरह पिा-दुबका बैठा रहे, यह कौन-से क्षात्रधर्म की बात है ? यह क्षात्रधर्म पर कलंक नहीं, तो और क्या है ! मैं युद्धक्षेत्र में जाऊँगा। अवश्य जाऊँगा !"
राजमाता ने उसकी पीठ थपथपाई। कहा-"बेटा अपने पिता के गौरव को उज्ज्वल करना, और अपने देश की यश-पताका को ऊँची करना !" इस पर ललितादित्य ने जो उत्तर दिया, वह एक महान वीर का उत्तर था। उसने कहा-"मेरे सामने तो सिर्फ एक बात है और वह मैं कर सकता हूँ, चाहे मैं जिन्दा रहूँ या रणक्षेत्र में खेत जाऊँ, मुझे इसकी परवाह नहीं ! जय और पराजय पर भी मेरा कोई अधिकार नहीं। मेरे वश की जो बात है, वह यह है कि शत्रु के शस्त्रों के घाव मेरी पीठ पर नहीं लगेंगे। मेरी मत्यु और जीवन से भी बढ़कर जो बात है, वह यही है कि शत्रु के शस्त्रों के वार मेरी छाती पर ही पड़ेंगे बस! पीठ पर कदापि नहीं पड़ सकते !" मतलब यह हुआ कि-जीना और मरना कोई महत्त्वपूर्ण नहीं, महत्त्वपूर्ण जो है, वह है-वीरतापूर्वक जीना और वीरतापूर्वक मरना।
साधक के लिए भी यही बात है। वह जीवन में साधना के जिस महापथ पर चलता है, वह पथ बड़ा विकट है। विकारों के तूफान उस पथ में पाएँगे, तो उसे हिमालय की
पन्ना समिक्खए धम्म
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