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योग और क्षेम
एक बार किसी चरवाहे को जंगल में घूमते समय एक चमकदार रत्न मिला। चरवाहा बड़ा खुश हुअा। उसने रत्न को चमकदार पत्थर समझा और उससे खेलने लगा। उछालतेलपकते, ऐसा हुआ कि वह रत्न हाथ से छूटकर पास के अन्धकूप में जा गिरा।
यह एक रूपक है। इसके द्वारा भारतीय संस्कृति का एक बहत ही महत्त्वपूर्ण विषय स्पष्ट होता है। इस रूपक पर यदि योग और क्षेम की दृष्टि से विचार करें, तो जान पाएंगे कि रत्न का मिलना एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण योग था । लेकिन उस योग के साथ क्षेम नहीं रहा, फलतः रत्न को गवाँ कर चरवाहा पहले की तरह खाली हाथ ही रह गया।
- सर्वप्रथम हमें यह जान लेना चाहिए कि योग और क्षेम का क्या अर्थ है, उसका क्या भाव है ? संस्कृत और प्राकृत वाङमय में इन शब्दों की बहुत चर्चा हुई है। उपनिषद्, गीता, जैनशास्त्र तथा बौद्धपिटक आदि प्राचीन साहित्य में स्थान-स्थान पर 'योग-क्षेम' शब्द प्राया है। उस युग के ये जाने-माने शब्द थे। बीच की शताब्दियों में जब सांस्कृतिक धारा का प्रवाह मन्द पड़ा, तो इन शब्दों का स्पश जनता को प्रात्मा को उतना नहीं हो सका, जितना कि प्राचीन युगों में था। अतः सम्भव है कि बहुत से सज्जन इन शब्दों की मूल भावना तक नहीं पहुँच पाए हों, इसलिए इन दोनों शब्दों का विस्तार पूर्वक चिन्तन अपेक्षित है।
योग का अर्थ:
योग शब्द के पीछे अनेक विचार-परम्पराएँ जुड़ी हुई है। योग का एक अर्थ-'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' भी है। प्रासन, प्राणायाम आदि क्रियाओं के द्वारा चित्त के विकल्पों का निरोध करना योग है। यह अर्थ योग-साधना में काफी प्रसिद्ध है। किन्तु, इसका एका दूसरा सर्व गाह्य अर्थ है--'अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः ।'
अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम है योग, जिसे कि हम संयोग भी कहते हैं। जिसे पाने के लिए अनेकानेक प्रयत्न किए हों, अनेक आकांक्षाएँ मन में उभरी हों, उस वस्तु का मिल जाना योग है। अथवा कभी प्राकस्मिक रूप से बिना प्रयत्न के अनचाहे ही किसी चीज का मिल जाना भी योग है। यह योग प्राय: हर प्राणी को मिलता है। जो जीव जहाँ पर है, उसी गति-स्थिति के अनुसार, उसे अनुकूल या प्रतिकूल योग-संयोग मिलते रहते हैं। इसलिए मेरी दृष्टि में खाली संयोग का इतना महत्त्व नहीं है, जितना कि सुयोग का है। कथा के चरवाहे को हमेशा ही कंकर-पत्थर का संयोग मिलता था, किन्तु बहमल्य हीरे का सूयोग तो जीवन में एक बार ही मिला! कुछ व्यक्ति जो संयोग को ही महत्त्व देते हैं, उसे ही सब-कुछ मान बैठते हैं, जीवन में कोई ख्याति या धन कमाने का कोई चान्स--संयोग मिल गया, तो बस उसे ही जीवन का श्रेष्ठतम सुयोग मान लेते हैं। साधारण मनुष्य की दृष्टि बाह्य वस्तुओं पर ही अधिक घूमती है, अत: बाह्य रूप को ही वह अधिक महत्त्व देता है। और तो क्या, तीर्थंकरों के वर्णन में भी स्वर्ण सिंहासन, रत्न-मणिजटित छत्र और चामर आदि की चकाचौंध वाली बाह्य विभूतियों को ही प्रदर्शित करने की चेष्टा की जाती है। संसार के सभी मानदण्डों का आधार आज बाह्य वस्तु, बाह्य शक्ति ही बन रही है। परन्तु, यह योग सुयोग कहाँ है ?
योग और क्षेम
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