________________
छटपटाने लग जाता है। दो क्षण में ही वह उछल कद मचाने लग जाता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि स्वतन्त्र रहना प्रात्मा का, चेतन का स्वभाव है। स्वभाव से विपरीत वह कभी नहीं जा सकती।
हम साधना के द्वारा मुक्ति की बात क्यों करते हैं ? मोक्ष की अपेक्षा बाहर में स्वर्ग की मोहकता अधिक है, भोगविलास है, वहाँ ऐश्वर्य का भण्डार है। फिर भी स्वर्ग के लिए नहीं, किन्तु मुक्ति के लिए ही हम साधना क्यों करते हैं ? मोक्ष में तो अप्सराएँ भी नहीं हैं, नत्य-गायन भी नहीं है ? बात यह है कि यह भौतिक सुख भी आत्मा का बन्धन ही है। देह भी बन्धन है, काम, क्रोध, ममता आदि भी बन्धन है, विकार और वासना भी बन्धन है और आत्मा इन सब बन्धनों से मुक्त होना चाहती है ? भौतिक प्रलोभनों और लालसाओं के बीच हमारी आजादी दब गई है। सुख-सुविधाओं से जीवन पंगु हो गया है, इन सबसे मुक्त होना ही हमारी आजादी की लड़ाई का ध्येय है। इसीलिए हमारी साधना मुक्ति के लिए संघर्ष कर रही है। मुक्ति हमारा स्वभाव है, स्वरूप है। वहाँ किसी का किसी तरह का बन्धन नहीं, किसी की गुलामी नहीं।
प्राचार्य जिनदास ने कहा है.---'न अन्नो प्राणायव्वों तू दूसरों पर अनुशासन मत कर। आदेश मत चला। अपना काम स्वयं कर । जैसा तुझे दूसरों का आदेश और शासन अप्रिय लगता है, वैसे ही दूसरों को भी तेरा शासन अप्रिय लगता है। कोई किसी के हुकुम में, गुलामी में रहना पसन्द नहीं करता। - कुछ लोग अमीरी के मधुर-स्वप्चों में रहते हैं। पानी पिलाने के लिए नौकर, खाना खिलाने के लिए भी नौकर, कपड़े पहनाने के लिए भी नौकर, मैंने यहाँ तक देखा है कि यदि जूते पहनने हैं, तब भी नौकर के बिना नहीं पहने जाते। यह इज्जत है या गुलामी ? यदि यह इज्जत है भी तो किस काम की है यह इज्जत, जहाँ मनुष्य दूसरों के अधीन होकर रहता है। आज का मानव स्वतन्त्रता की बात करता है, पर वह दिन प्रतिदिन यंत्रों का गुलाम होता जा रहा है। यंत्रों के बिना उसका जीवन पंगु हो गया है। विज्ञान का विकास अवश्य हुआ है, जीवन के लिए उसका उपयोग भी है, पर जीवन को एकदम उसके अधीन तो नहीं कर देना चाहिए? इधर हम स्वतन्त्रता की बात करते हैं और उधर पराश्रित होते चले जा रहे हैं ! अन्न आदि आवश्यक वस्तुओं के मामले में भी देश आज परमुखापेक्षी हो रहा है। आज हमारा राष्ट्रिय चिन्तन इन सब परवशताओं को तोड़ने के लिए प्रयत्नशील है। क्योंकि उसे स्वतन्त्र रहना है, किसी का गुलाम नहीं रहना है, राजनीतिक आजादी, सामाजिक आजादी और आर्थिक आजादी तथा इन सबके ऊपर अंत में आध्यात्मिक आजादी-हमारे महान् आदर्श है। हमें इसी ओर बढ़ना है, अपने स्वतन्त्रता रूप निज स्वरूप की ओर जाना है।
जिज्ञासा: चेतन का धर्म:
चौथी वृत्ति है-जिज्ञासा की। ज्ञान पाने की इच्छा ही जिज्ञासा है, सुख और स्वतन्त्रता की भावना की तरह यह भी नैसर्गिक भावना है। चैतन्य का लक्षण ही ज्ञान है। 'जीवो उवयोग-लक्खणो भगवान महावीर की वाणी है कि जीव का स्वरूप ज्ञानमय है। इसके दो कदम और आगे बढ़कर, यहाँ तक कह दिया गया है कि जो ज्ञाता है, वही प्रात्मा है, जो आत्मा है, वही ज्ञाता है--'जे आया से विनाया, जे विनाया से प्राया।' वैदिक परम्परा में भी यही स्वर मुखरित हुआ-'प्रज्ञानं ब्रह्म।' मतलब यह कि ज्ञान प्रात्मा से कोई अलग वस्तु नहीं है, "जो चेतन है, वही ज्ञान है और जो ज्ञान है, वहीं चेतन है।"
छोटे-छोटे बच्चे जब कोई चीज देखते हैं, पूछते रहते हैं कि यह क्या है ? वह क्या है? हर बात पर उनके प्रश्नों की झडी लगी रहती है। आप भले उत्तर देते-देते तंग आ जाएँ, पर वह पूछता-पूछता नहीं थकता, कभी नहीं थकता ! वह सृष्टि का समस्त ज्ञान अपने अन्दर में भर लेना चाहता है, सब-कुछ जान लेना चाहता है। वह ऐसा क्यों करता है ? जानने की इतनी उत्कण्ठा उसमें क्यों जग पड़ी है ? इसका मूल कारण यही है कि जानना
विविध आयामों में : स्वरूप दर्शन
१७६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org