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लगाकर वहाँ तक नहीं पहुँच सकते । इस स्थिति में, जब तक पूर्ण वीतराग नहीं हो जाते हैं, राग को अशुभ में से शुभ में परिणत करना चाहिए। खेद है, इस तथ्य को सोचनेसमझने की भूल हमने की है। हम अपने देह, परिवार और सम्प्रदाय के निम्न अनुरागों में तो फँस गए हैं, किन्तु राग के जो ऊर्ध्वमुखी प्रादर्श रूप हैं—-गुणानुराग, देव, गुरु, धर्म की भक्ति, सेवा, मैत्री, करुणा और सहयोग आदि उन्हें भूल गए हैं, उन वृत्तियों को राग की कोटि में मानकर उनसे निरपेक्ष रहने की बात कहने लग गए हैं । चिन्तन की यह एक बहुत बड़ी भूल है, इस भूल को समझना है, सुधारना है— तभी हम जैन-धर्म के पवित्र आदर्शो को जीवन में साकार बना सकेंगे । और, राग के ऊर्ध्वकरण एवं पवित्रीकरण की प्रक्रिया सीख सकेंगे। प्रवृत्तियों और कषायों से मुक्त होने का सही मार्ग यही है । अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध -- इस सोपानबद्ध प्रयाण से सिद्धि का द्वार आसानी से मिल सकता है । हनुमान - कूद तो हमें कभी-कभी निम्नतम दशा में ही बुरी तरह से पटक दे सकती है । राग का ऊर्ध्वकरण - सोपानबद्ध प्रयाण ही इसके लिए उचित मार्ग है । वीतरागता का भी यह एकान्त अर्थ नहीं है कि वह जन-कल्याण से पराङ्मुख हो कर यों ही निष्क्रिय दशा में जीवन के शेष वर्ष गुजारता रहे। वीतराग को भी जन-कल्याण के कार्य करने हैं । रागमुक्त होकर भी यह उदात्त कर्म किया जा सकता है । उदाहरण के रूप में भगवान् महावीर को ही लीजिए । केवलज्ञान प्राप्त कर पूर्ण वीतराग अन्त होने पर भी वे जीवन के शेष तीस वर्ष तक दूर-दूर के प्रदेशों में, बीच की गंगा, गंडकी आदि नदियों को नौकाओं से पार कर, हजारों साधु-साध्वियों के साथ, नगर-नगर, ग्रामग्राम भ्रमण कर जन-जन को कल्याण का उपदेश देते रहे, उन्हें अशुभ से शुभ में परिवर्तित करते रहे, दुर्व्यसनों एवं अन्धविश्वासों से मुक्त कर उनके अन्तर में दया, करुणा, मैत्री एवं पारस्परिक सद्भावना का अमृत निर्झर बहाते रहे ।
जन-कल्याण जीवन का आदर्श है। जब तक राग है, उसे शुभ में परिणत कर के जन-कल्याण करें | और जब पूर्ण वीतराग प्रर्हन्त हो जाएँ, तब भी निष्काम भाव से जनजीवन का हित एवं निःश्रेयस साधते रहें ।
राग का ऊर्ध्वोकरण
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