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जो अपवित्रता है, जो गंदगी है, वह सिर्फ ऊपर की है। अनन्तानन्त-काल बीत गया, किन्तु अब तक उसी गन्दगी में पड़ी आत्मा अपना स्वरूप भूलती रही है, और संसार का चक्कर काटती रही है। अब अपने शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करके, उसे प्रकट करने का प्रयत्न करना चाहिए। देह, इन्द्रिय, मन तथा काम-क्रोध आदि विकारों की तह के नीचे छिपे उस आत्म रूपी स्वर्ण को अलग निखारना चाहिए। यही सम्यक्त्व है, यही परम-ज्ञान है और यही उस अनन्त प्रकाश और अनन्त सुख का राज-मार्ग है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है-"सुख प्रात्मा की निर्वेद-निःस्पृह अवस्था है। सुख, शरीर को कभी भी प्राप्त नहीं होता, बल्कि आत्मा में अनुभूत होता है।" अतः यथार्थ आत्म-सुख एवं शाश्वत आत्मानन्द का वास्तविक परिज्ञान करने के लिए, उसका प्रशस्तपथ, उसका राज-मार्ग है-आत्मा को क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों के मल से दूर कर, नव विकसित सौरभमय पुष्प-पंखुड़ी की तरह खिला पाना है, अन्य कुछ नहीं।
आत्म-बोध : सुख का राज मार्ग
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