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आत्म-बोध : सुख का राज-मार्ग
यह विशाल संसार दो तत्त्वों से निर्मित है। सृष्टि का यह विशाल रथ उन्हीं दो चक्कों पर चल रहा है । एक तत्त्व है, चेतन अर्थात् जीव ! और दूसरा तत्त्व है, जड़ अर्थात् जीव । चेतन तत्त्व अनन्त काल से अपना खेल खेलता चला आ रहा है और जड़ तत्त्व उसका साथी है, जो अनन्त अनन्त काल से इस खेल में चेतन का साथ देता आया है। इस संसार नाटक के ये दो ही सूत्रधार हैं। वास्तव में इनकी क्रिया-प्रतिक्रिया और अच्छी-बुरी हलचल का ही नाम संसार है । जिस दिन ये दोनों साथी अलग-अलग बिछुड़ जाएँगे, एक-दूसरे का साथ छोड़ देंगे, उस दिन संसार नाम की कोई वस्तु ही नहीं रहेगी। किन्तु, आज तक कभी ऐसा हुआ नहीं, संभवतः होगा भी नहीं। किसी एक जीव की दृष्टि से भले ही परस्पर सम्बन्ध विच्छेद हुआ है, परन्तु समग्र जीवों की दृष्टि से कभी ऐसा नहीं हुआ और न होगा ।
चेतन का बोध :
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सामान्य मनुष्य इन दोनों साथियों को अलग-अलग छाँट नहीं सकता । यद्यपि इनके स्वभाव में एकदम विपरीतता है, फिर भी इस प्रकार घुले-मिले रहते हैं कि उनका भेद जानना बड़ा ही कठिन होता है । प्रायः हर व्यक्ति के हर मानस में यह प्रश्न उठा करता है किशरीर, इन्द्रिय और मन के पुद्गल पिण्डों में, जो स्वयं भी अनन्तानन्त परमाणु रूप पुद्गल पिण्डों से निर्मित है, उसमें आत्म-तत्त्व का निवास कहाँ है ? वह अन्दर ही अन्दर क्या करता रहता है ? श्रात्मतत्त्व को समझने के लिए इस प्रश्न का उत्तर जरूरी है । शब्दशास्त्र के माध्यम से इतना पता तो है कि वह आत्मा है । किन्तु मात्र इतने जवाब से तो जिज्ञासा शांत नहीं होती। यह तो मिथ्यात्वी भी जानता है कि शरीर के भीतर एक आत्मा है । कोई उसे रूह, सोल या पुरुष नाम से सम्बोधित करके बतला देते हैं, तो कोई आत्मा कहकर उसका परिचय देते हैं ।
जैन शास्त्रों की गहराई में जाने से मालूम होगा कि "मैं" शरीर नहीं, शरीर से भिन्न आत्मा हूँ । किन्तु इतना सा ज्ञान तो अभव्य को भी रहता है । इस जानकारी के आधार पर तो कोई आत्मज्ञानी नहीं बन सकता । जब इसके आगे की श्रेणी पर चढ़ेंगे, आत्मा और शरीर की भिन्नता का प्रत्यक्ष अवबोध करने की ओर अग्रसर होंगे, तब कहीं कुछ मार्ग मिलेगा । प्रत्यक्ष और परोक्ष :
प्रारम्भिक साधक को आत्मा और शरीर की भिन्नता की प्रतीति से श्रात्म-ज्ञान हो जाता है, किन्तु वह प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि परोक्षरूप में होता है । इसमें श्रात्म-ज्ञान की एक अस्पष्ट और धुंधली सी झाँकी मिलती है और पता चलता है कि अन्तर में जैसे शरीर से frea कुछ है, किन्तु परोक्ष-बोध स्पष्ट परिबोध नहीं है, अतः आत्म बोध का पूर्ण आनन्द नहीं प्राप्त होता ।
ज्ञान के दो प्रकार हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष स्पष्ट होता है, और परोक्ष अस्पष्ट । इस सम्बन्ध में प्राचीन दर्शन सूत्र हैं
" स्पष्टम् प्रत्यक्षम्, अस्पष्टम् परोक्षम् ।"
श्रात्म-बोध : सुख का राज मार्ग
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