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दशा तो लोकातीत दशा है। वहां लोक-परलोक को सुधारने की बात ही कहाँ है ? जो शुद्ध दशा है, वहाँ फिर सुधार की क्या बात? अशुद्ध को ही सुधारा जाता है, इसलिए सामान्य साधक के लिए शुद्ध से पहले शुभ की भूमिका रखी गई है, वीतरागता से पूर्व शुभराग का मार्ग बताया गया है।
साध का जो विधि-निषेधात्मक क्रियारूप आचार-धर्म है, वह क्या है ? दान, दया, सेवा, उपासना और भक्ति-पूजा के विधि-विधान क्या हैं ? क्या यह वीतराग-धर्म है ? नहीं, वीतरागता में तो सहज दशा होती है, वहाँ विधि-निषेधों के विकल्पों की कोई गुंजाइश नहीं। प्रात्मा अपने शुद्ध स्वरूप में विचरण करती है। वहाँ इन्द्रियनिग्रह किया नहीं जाता, स्वत: हो जाता है। इसलिए वह इन्द्रियातीत दशा है। फिर इन्द्रिय-संयम, मनोनिग्रह, देव, गुरु, धर्म की भक्ति, पूजा-प्रार्थना आदि के विकल्प वीतराग दशा में कैसे हो सकते हैं ? आचार्य कुन्दकुन्द जैसे आध्यात्मवादी चिंतकों ने तो इन सब क्रियाओं को शुभ राग माना है । इसका अर्थ यह है कि यह सब राग का ऊर्चीकरण है, राग की शुभदशा है। अहिंसा पर किसी को तभी स्थिर किया जा सकेगा, जब उसके मन में स्नेह एवं करुणा की धारा बहती होगी। सत्य और प्रचौर्य की प्रेरणा तभी काम कर सकेगी, जब अनीति से परे नैतिक-निष्ठा जागत होगी। मानव-जाति का आज जो विकास हुआ है, उसके चितन में जो उदात्तता पाई है, वह निश्चित ही उसके स्नेह, करुणा और शुभराग की परिणतियाँ हैं। यदि मनुष्य के हृदय में शुभराग की वत्ति नहीं होती, तो शायद मनुष्य, मनुष्य भी नहीं रह पाता । फिर आप कहाँ होते ? हम कहाँ होते? कौन किसके लिए होता?
एक बार मैंने देखा—एक चिड़िया घोंसले में बैठी अपने बच्चों की चोंच में दाना दे-देकर उन्हें खिला रही थी। इधर-उधर से बड़ी मेहनत करके वह दाना लाती और बच्चों के मुंह में बड़े प्यार से डालती? मेरे पास ही खड़े एक मुनिजी ने पूछा---यह ऐसा क्यों करती है ? क्या मतलब है इसका ?
मैंने हँसकर कहा-मतलब चिड़िया से मत पूछो, इन्सान से पूछो। मतलब की भाषा उसी के पास है, वहाँ तो एक प्राकृतिक स्नेह-राग है, जो प्रत्येक जीवधारी को एकदूसरे के लिए उपकृत करता है। यह स्नेह ही प्राणी को एक-दूसरे के निकट लाता है, एक से अनेक बनाता है, परिवार और समाज के रूप में उसे एक रचनात्मक व्यवस्था से बाँधता है। यह स्नेह भले ही मोह का रूप है, पर मोह से हम कहाँ मुक्त हुए हैं ? जहाँ पारिवारिक जीवन है, एक-दूसरे के साथ रागात्मक सम्बन्ध है, वहाँ मोह तो है ही। परिवार, समाज, यहाँ तक कि धर्म-संघ और सम्प्रदाय सभी इस मोह से बँधे हैं। हाँ, जहाँ यह मोह उदात्त बन जाता है, स्नेह व्यापक बन जाता है, वहाँ उसकी अपवित्रता कम हो जाती है, वह मोह, वह राग, शुभ के रूप में बदल जाता है। अहद-भक्ति, सिद्ध-भक्ति, गुरु-भक्ति आदि के रूप भी इसी उदात्त शुभ राग की कोटि में आते हैं।
दीतरागता का नाटक :
वीतरागता हमारा मुख्य धर्म है, महान् ध्येय है। किन्तु जब तक वह वीतरागता नहीं आती है, तब तक हमें राग को अधिकाधिक पवित्र एवं उदात्त बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने निज के दैहिक स्वार्थ और मोह से ऊपर उठकर उसको मानव-चेतना और समग्र जीव-चेतना तक व्यापक बनाना चाहिए। अन्यथा साधक की यह महान् भूल होगी कि वह एक ओर वीतरागता का नाटक खेलता रहे, पर दूसरी ओर न तो वह उसे प्राप्त कर सके और न इधर राग को पवित्र बनाकर दूसरों की सेवा-सहयोग ही करने का प्रयत्न करे। यह स्थिति बड़ी दुविधापूर्ण होगी।
एक बार सदर प्रान्त के कुछ साध लधियाना (पंजाब) में पधारे । एक मनिजी ने, जो बात-बात में अपने को बहुत बड़े बैरागी और अध्यात्मवादी प्रदर्शित करते रहते थे, एक दिन व्याख्यान में आत्मा और पुद्गल की बड़ी लम्बी-चौड़ी बातें कहीं। और,
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पन्ना समिक्खए धम्म
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