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हुई हैं, वे भूलें शायद आपने उतनी नहीं की होगी, जितनी कि गुरुपद से हमने की होंगी। और, वे नयी भी नहीं, बहुत पुरानी हैं । वे काफी पहले से चली आ रही हैं। धर्म : केवल परलोक के लिए?
मैं जब इन बँधी-बंधाई मान्यताओं और चली आ रही परम्परात्रों की ओर देखकर पूछता है-"धर्म किसलिए है ?" तो एक टकसाली उत्तर मिलता है—“धर्म परलोक सुधारने के लिए है।" "यह सेवाभक्ति, दान-पुण्य किसलिए? परलोक के लिए।" हम बराबर कहते आये हैं-"परलोक के लिए कुछ जप-तप कर लो, आगामी जीवन के लिए कुछ गठरी बाँध लो।" मंदिर के घंटे-घड़ियाल-केवल परलोक-सुधार का उद्घोष करते हैं, हमारे ओघे-मुखपत्ती जैसे परलोक-सुधार की नामपट्टियाँ बन गए हैं। जिधर देखो, जिधर सुनो, परलोक की आवाज इतनी तेज हो गई है कि कुछ और सुनाई ही नहीं देता। एक अजीब कोलाहल, एक अजीब भ्रांति के बीच हम जीवन जी रहे हैं, केवल परलोक के लिए!
हम आस्तिक है, पुनर्जन्म और परलोक के अस्तित्व में हमारा विश्वास है, किन्तु इसका यह मतलब तो नहीं कि उस परलोक की बात को इतने जोर से कहें कि इस लोक की बात कोई सुन हा नहीं सके। परलोक की आस्था में इस लोक के लिए आस्थाहीन होकर जीना, कैसी आस्तिकता है?
मेरा विचार है, यदि परलोक को देखने-समझने की ही आपकी दृष्टि बन गई है, तो इस जीवन को भी परलोक क्यों नहीं समझ लिया जाए ? लोक-परलोक सापेक्ष शब्द हैं । पुनर्जन्म में यदि आपका विश्वास है, तो पिछले जन्म को भी प्राप अवश्य मानते हैं ? अतः अतीत के पिछले जीवन की दृष्टि से क्या यह जीवन परलोक नहीं है ? पिछले जीवन में आपने जो कुछ साधना-आराधना की होगी, उस जीवन का परलोक यही तो वर्तमान है। फिर आप इस जीवन को भूल क्यों जाते हैं? परलोक के नाम पर इस जीवन की उपेक्षा, अवगणना क्यों कर रहे हैं ?
लोकातीत साधना:
__ भगवान महावीर ने साधकों को सम्बोधित करते हुए कहा था-'पाराहए लोगमिणं तहा परं"-साधको! तुम इस लोक की भी पाराधना-साधना करो, परलोक की भी। लोक और परलोक में प्रात्मा की कोई दो भिन्न सत्ता नहीं है, जो आत्मा इस लोक में है, वही परलोक में भी जाती है, जो पूर्व जन्म में थी, वही इस जन्म में आई है। इसका मतलब है---- पीछे भी तुम थे, यहाँ भी तुम हो और आगे भी तुम रहोगे। तुम्हारी सत्ता अखण्ड और अनन्त है। तुम्हारा वर्तमान इहलोक है, तुम्हारा भविष्य परलोक है। जिन्दगी जो नदी के एक प्रवाह की भाँति क्षण-क्षण में आगे बहती जा रही है, वह लोक-परलोक के दो तटों को अपनी करवटों में समेटे हुए है। जरा सूक्ष्मदृष्टि एवं तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाए, तो जीने-मरने पर ही लोक-परलोक की व्यवस्था नहीं है। वर्तमान जीवन में ही लोक-परलोक की धारा बह रही है। जीवन का हर पहला क्षण लोक है, और हर दूसरा क्षण परलोक । लोक-परलोक इस जिन्दगी में क्षण-क्षण में आ रहे हैं, जा रहे हैं। हमने लोक-परलोक को बाजारू शब्द बना दिए और यों ही गोटी की तरह फेंक दिया है खेलने के लिए। यदि इन शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ समझा जाए, लोक-परलोक की सीमाओं का सही रूप समझा जाए, तो जो भ्रांतियाँ आज हमारी बुद्धि को गुमराह कर रही हैं, वे नहीं कर पाएँगी।
हम जो लोक-परलोक को सुधारने की बात कहते हैं, उसका अर्थ है, वर्तमान और भविष्य-दोनों ही सुधरने चाहिएँ। यदि वर्तमान ही नहीं सुधरा, तो भविष्य कैसे सुधरेगा?
"लोक नहीं सुधरा है यदि तो, कैसे सुधरेगा परलोक ?"
पन्ना समिक्खए धम्म
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