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पर भरोसा न करें, किन्तु सही तथ्य के अवगत होने पर तो अवश्य ही सोचेंगे कि इसमें कोई गड़बड़ है क्या ? दाल में काला है क्या ? या तो यह चक्रवर्ती का पुत्र नहीं है, या अपनी स्थिति को भूल कर पागल एवं विक्षिप्त हो गया है ! इसी प्रकार राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि महापुरुषों की संतान तथा महान् श्रात्माओं के उत्तराधिकारी हम यदि वासनाओं, इच्छाओं और कामनाओं के द्वार पर भीख माँगते फिरते हैं, विषयों के गुलाम हुए बैठे हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि कहीं हम उन महापुरुषों के नकली उत्तराधिकारी तो नहीं हैं ? आज हमें भान नहीं रहा है कि हम कौन हैं ? और, हमारी मर्यादाएँ क्या है ? यदि हम सच्चे अर्थ में उन महान आत्मानों के उत्तराधिकारी हैं, तो हममें करुणा क्यों नहीं जगती है ? सत्य का प्रकाश क्यों नहीं होता है ? विकारों को ध्वस्त करने के लिए वीरत्व क्यों नहीं उछालें मारता है ? आत्म स्वरूप को भुलाकर हम दीन-हीन बने हुए क्यों दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं ? हमारे उत्तराधिकार के दावे पर वास्तव में यह एक प्रश्न चिन्ह है ?
आत्म-शक्ति की बात पर हमें यह भी नहीं भूलना है कि सिर्फ पाँच-छह फुट के शरीर की शक्ति ही आत्म-शक्ति नहीं हैं। उसकी छोटी-सी परिधि ही ग्रात्मा की परिधि नहीं है | शरीर, इन्द्रिय और मन की शक्ति या चेतना तो मात्र औपचारिक है, वास्तविक शक्ति का स्रोत तो हमारी आत्मा ही है। कुछ लोग अवधिज्ञान के विषय में पूछते रहते हैं, उसकी प्राप्ति के लिए बहुत लालायित रहते हैं, किन्तु मैं पूछता हूँ कि अवधिज्ञान प्राप्त करने से क्या होगा ? अवधिज्ञान के द्वारा यदि स्वर्ग, नरक आदि का ज्ञान हो गया, मेरु पर्वत की स्थिति का पता चल गया, संसार की हरकतों और हलचलों का लेखा-जोखा करने की भी यदि शक्ति मिल गई, तो क्या हुआ ? आत्म-दर्शन के बिना उस अवधिज्ञान का क्या महत्त्व है ? इसी प्रकार मनःपर्यंव ज्ञान की प्राप्ति से यदि अपने एवं जगत् के अन्य प्राणियों के मन की उछल-कूद का ज्ञान हो गया, भूत-भविष्य की जानकारी हो गई, मनरूपी बंदर के खेल देखने और जानने की शक्ति मिल गई, तो इससे लाभ क्या हुआ ? यही कारण है कि केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए और उसकी भूमिका में आने के लिए बीच में अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान प्राप्त करने की कोई शर्त नहीं रखी गई है। महत्त्व तो श्रुतज्ञान का है कि जिसके सहारे आत्मा के वास्तविक स्वरूप की झाँकी मिले, भले ही वह परोक्ष रूप में हो, किन्तु उसी के सहारे विकास पथ पर अग्रसर होती हुई आत्मा एक दिन केवलज्ञान के द्वारा अमूर्त अनन्त श्रात्म-तत्त्व का साक्षात् बोध कर सकती है।
मुक्ति का मर्म :
आप लोग जानते हैं कि हम जो इतने क्रियाकांड करते हैं, उपवास, संवर, सामायिक आदि करते हैं, खाने-पीने, भोग-विलास आदि इन्द्रियजन्य सुख की वस्तुओं का त्याग करते हैं, वह सब किसके लिए है ? शरीर के साथ हमारी कोई लड़ाई नहीं है कि हम उसे बेदर्दी के साथ सुखा डालें, उसको यों ही सड़ने - गलने दें। जैन दर्शन की विशिष्टता यही तो है कि उसकी लड़ाई न तो संसार के पदार्थों के साथ है, और न शरीर के साथ। उसकी लड़ाई तो है -- आसक्तियों के साथ, राग-द्वेष के साथ । व्रत-उपवास आदि साधन इसीलिए तो हैं कि उनके द्वारा राग-द्वेष को कम किया जाए, आसक्ति को मिटाया जाए। यदि त्याग करने पर भी प्रासक्ति नहीं हटी, तो वह एक प्रकार का मायाचार होगा। गीता के शब्दों में 'मिथ्याचार' होगा । जिस चोर को निकालने के लिए हमने लड़ाई की, यदि वह घर के भीतर और गहरा जा छुपा, तो यह और भी भयंकर स्थिति होगी । इसीलिए जैनदर्शन वस्तुओं से हटने का उतना उपदेश नहीं करता, जितना कि प्रासक्ति से दूर हटने का उपदेश करता है । राग-द्वेष, मोह और आसक्ति के बंधन जितने परिमाण में टूटते हैं, उतने ही परिमाण में हम आत्मा के निकट आते हैं और मुक्ति के निकट आते हैं। लोग कहते भगवान् महावीर की मुक्ति दिवाली के दिन हुई । जैन दर्शन की दृष्टि में यह कहना
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पत्रा समिक्ar धम्मं
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