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बड़ी सूक्ष्म और प्रबल रहती है। इसीलिए वृद्ध अवस्था को ज्ञान-योग की अवस्था के रूप में माना गया है। ज्ञान-योगी : जीवन-मुक्त सिद्ध :
जैन-धर्म की साधना-पद्धति का जिन्हें परिचय है, वे जानते हैं कि साधक कैवल्य-दशा को प्राप्त करने के साथ ही 'ज्ञान-योग' की परिपूर्ण अवस्था में पहुँच जाता है। साधना-काल 'कर्म-योग' है और सिद्ध-अवस्था 'ज्ञान-योग' है। यह स्मरण में रखना चाहिए कि साधनाकाल में ज्ञान तो होता है, होना ही चाहिए, किन्तु केवलज्ञान नहीं होता। जब ज्ञान-पूर्वक साधना अपनी अन्तिम परिणति में पहुँच जाती है अर्थात् साधना-काल समाप्त हो जाता है, तभी केवलज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए पूर्णज्ञान केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद प्रात्मा सिद्ध कहलाती है। यह आप जानते ही है कि देह-मुक्त सिद्ध और सदेह-सिद्ध के जो भेद है, वे इसी दष्टि से हैं। केवलज्ञानी अर्हन्त, जो सशरीरि होते हैं, सदेह-सिद्ध कहलाते हैं। उन्हीं की अपेक्षा से आगमों में एक स्थान पर यह प्रयोग आया है-"सिद्धा एवं भासन्ति" सिद्ध ऐसा कहते है, अर्थात केवलज्ञानी अर्हन्त ऐसा कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है---सिद्ध-अवस्था ज्ञानयोग की अवस्था है, जहाँ कर्तव्य एवं कर्म की सम्पूर्ण सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं, साधना के रूप में विधि-निषेध के बन्धन ट्ट जाते हैं। आत्मा केवल अपने स्वभाव में, ज्ञान-योग में ही विचरण करती है।
यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है और उठता भी है--जब केवल-दशा में कुछ भी कर्तव्य अवशेष नहीं रहता, साधना-काल समाप्त हो जाता है, तो फिर केवलज्ञानी उपवास आदि किसलिए करते हैं ? क्योंकि उनके सामने न इच्छाओं को तोड़ने का प्रश्न है और न कुछ अन्य विशिष्टता पाने का ?
बात ठीक है। इच्छाएँ जब तक रहती है, तब तक कैवल्य प्राप्त हो नहीं पाता, अतः इच्छा-निरोध का तो प्रश्न नहीं हो सकता। क्योंकि आत्म-स्वरूप के घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय रूप चार घाति-कर्मों को क्षय करने हेतु साधना होती है। घाति-कर्म वहाँ समाप्त हो चुके हैं, अवशिष्ट वेदनीय, प्रायुष, नाम और गोत्र रूप चार अघातिकर्म रहे हैं और अघाति-कर्म को क्षय करने हेतु बाहर में किसी भी तप आदि साधना की अपेक्षा नहीं रहती। अतः उपवास प्रादि तप अघाति-कर्म को क्षय करने हेतु कभी नहीं होते। अघातिकर्म काल-परिपाक से स्वतः ही क्षीण हो जाते हैं। विचार कीजिए, यदि कोई प्रायु-कर्म को क्षीण करने हेतु उपवास आदि करता है, तो यह स्पष्ट ही गलत है।
वीतराग केवलज्ञानी सदेह-सिद्ध अर्हन्तों के उपवास आदि चर्चा के सम्बन्ध में जैनदर्शन में कहा गया है-"यह एक काल-स्पर्शना है, पुद्गल स्पर्शना है। कैवल्य-अवस्था निश्चय दष्टि की अवस्था होती है, केवलज्ञानी जब' जैसी स्थिति एवं स्पर्शना का होना देखते हैं, तब वे वैसा ही करते हैं, करते क्या हैं. सहज ही वैसी परिणति में हो जाते हैं। उनके लिए उदय मुख्य है-"विचरे उदय प्रयोग।" जब आहार की पुद्गल-स्पर्शना नहीं होती, तो सहज उपवास हो जाता है। और, जब आहार की पुद्गल-स्पर्शना होती है, तब आहार हो जाता है। न उपवास का कोई विकल्प है और न आहार का। सर्व-विकल्पातीतदशा, जिसे हम कल्पातीत अवस्था कहते हैं, उस अवस्था में विधि-निषेध अर्थात् विहितअविहित जैसी कोई मर्यादा नहीं रहती। इसी को वैदिक-संस्कृति में विधि-निषेध से परे की नि-गुणातीत अवस्था कहा है-"नैस्वैगुण्ये पथि विचरतां को विधिः को निषेधः?" यह ज्ञान-योग की चरम अवस्था है, जहाँ न भक्ति की जरूरत है, न कर्म की ! आत्मा अपने विशुद्ध ज्ञान रूप में स्वतः ही परिणमन करती रहती है। जैन-परिभाषा में यह प्रात्मा की स्वरूप अवस्था सदेह-सिद्ध अवस्था है। उक्त जीवन-मुक्त सदेह-सिद्ध अवस्था से ही अन्त में देह-मक्त सिद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है। और, इस प्रकार ज्ञान-योग पूर्णता की अपनी अन्तिम परिणति में पहुँच जाता है।
प्राध्यात्मिक त्रिपथगा : भक्ति, कर्म और ज्ञान
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