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दृष्ठिकोण के आधार पर समन्वय करने का सफल प्रयास किया था। भगवान् महावीर के इस अनेकान्तवाद का प्रभाव अपने समकालीन बौद्ध-दर्शन पर भी पड़ा और अपने युग के उपनिषदों पर भी पडा। उत्तरकाल के सभी प्राचार्यों ने किसी-न-किसी रूप में उनके इस उदार सिद्धान्त को स्वीकार किया ही था। यही कारण है कि भारतीय-दर्शनों में कुछ विचार-भेद और साधन-भेद होते हुए भी, उद्देश्य और लक्ष्य में किसी प्रकार का विलक्षण विरोध नहीं है, उनमें परस्पर विरोध की अपेक्षा समन्वय ही अधिक है।
श्रोता ही नहीं, द्रष्टा :
भारतीय-दर्शन जीवन और जगत् के साक्षात्कार का दर्शन है। भारतीय चिन्तकों ने कहा कि श्रुत और दृष्ट दोनों में से श्रुत की अपेक्षा दृष्ट का ही अधिक महत्त्व है। दर्शन शब्द का मूल अर्थ ही सत्य का दर्शन है, साक्षात्कार है। अतः भारतीय-दर्शन श्रोता की अपेक्षा द्रष्टा ही अधिक है। उसने जीवन के यथार्थ सत्य को साक्षात्कार करने का प्रयत्न किया है और तदनुरूप सफलता भी प्राप्त की। भारतीय-दर्शन जितना महत्त्व चिन्तन को देता है, उतना ही अधिक महत्त्व वह अनुभव को भी देता है। भारतीय-दर्शनों का अन्तिम लक्ष्य जीवन को भौतिक धरातल से ऊपर उठा कर सत्य की उस चरम सीमा तक पहुँचाना है, जिसके आगे अन्य कुछ न प्राप्य है, और न राह है। भारतीय-साधना का लक्ष्य वर्तमान जीवन के बन्धनों से मुक्त होकर इसी दिव्य अक्षर जीवन की ओर अग्रसर होने का है। भारतीय-साधना के मूल में अध्यात्म-भाव है और इसी कारण वह प्रत्येक वस्तु को अध्यात्म की तुला पर तौलता है, और अध्यात्म की कसौटी पर कस कर ही उसे स्वीकार करता है। जीवन में, जो कुछ अनात्मभत है, उसे वह स्वीकार करना नहीं चाहता, फिर भले ही, वह कितना ही सुन्दर और कितना ही मूल्यवान क्यों न हो? इसी आधार पर भारतीय-दर्शन जीवन और जगत को अध्यात्म की कसौटी पर कसता है और उसके खरे उतरने पर उसकी अध्यात्म-दृष्टि से व्याख्या करके, वह उसे जन-जीवन के लिए ग्राह्य बना देता है, जिसे पा कर जन-जीवन समृद्ध हो जाता है । निराशावाद नहीं, प्राशावाद :
भारतीय-दर्शन का उद्देश्य वर्तमान असन्तुष्ट जीवन के चक्रवात में इधर-उधर भटकते रहना ही नहीं है, बल्कि उसकी वर्तमान व्याकुलता का लक्ष्य है, अनाकुलता पाना । कुछ आलोचक भारतीय-दर्शन पर दुःखवादी और निराशावादी होने का आरोप लगाते हैं। यह प्रवृत्ति पाश्चात्य-दार्शनिकों में अधिक है और उनका अनुसरण करके कुछ भारतीय विद्वान भी उनके स्वर में अपना स्वर मिला देते हैं। मेरे विचार में भारतीय-दर्शन को निराशावादी और दुःखवादी कहना सत्य से परे है। भारतीय-दर्शन वर्तमान जीवन के दुःख-क्लेशों पर खड़ा होता तो अवश्य है, परन्तु वह उसे अन्तिम सत्य एवं लक्ष्य नहीं मानता है। उसका एकमाल लक्ष्य, तो इस क्षणभंगुर और निरन्तर परिवर्तनशील तथा प्रतिक्षण मरण के मुख में जाने वाले संसार को शाश्वत अमृतत्व प्रदान करना है। भारतीय-दर्शन की यह विशेषता रही है कि उसने क्षणभंगुरता में अमरता को देखा है। उसने अंधकार में भी प्रकाश की खोज की है और उसने उन्माद में भी संबोधि के उन्मेष को पाने का निरन्तर प्रयास किया है। पुरातन-काल का ऋषि अपनी अन्तर-वाणी को शब्दों में अभिव्यक्त करता है--"असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।" -"प्रभो, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मुझे मरण-शीलता से अमरता की ओर ले चलो।"
जैन-दर्शन का सूत्र है--"सव्व दुक्ख-पहीणमगं" -साधना, समग्र दुःखों को पूर्णतया क्षीण करने का मार्ग है।
जैन-दर्शन को समन्वय-परम्परा
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